एक जूते की आत्मकथा हिंदी निबंध | AK FTE JUTE KI AATMAKTHA ESSAY IN HINDI

 

एक जूते की आत्मकथा हिंदी निबंध | AK FTE JUTE KI AATMAKTHA ESSAY IN HINDI

नमस्कार  दोस्तों आज हम एक जूते की आत्मकथा इस विषय पर निबंध जानेंगे। इस लेख मे कुल २ निबंध दिये गये हे जिन्‍हे आप एक -एक करके पढ सकते हे । तुम मेरी आत्मकथा सुनना चाहते हो, पर मेरी आत्मकथा में रखा ही क्या है? मैं ठहरा चमड़े का जूता, गंदी और अपवित्र वस्तु। मेरा साथी भी मेरे पास ही पड़ा है। हम दोनों के जीवन की एक ही कहानी है। अच्छा, तो सुनिए।


मेरा जन्म आज से तीन साल पहले हिंदुस्तान की प्रसिद्ध बाटा कंपनी के कारखाने में हुआ था। ओह, तब क्या शान-शौकत थी मेरी ! जिस चमड़े से मैं बना था वह बहुत कीमती था। कारीगर ने मुझे बड़ी लगन से बनाया था। बनते समय न जाने कितनी बार मुझे काटा-छाँटा गया, सुई और धागे से सिया गया था। 


यह तो ठीक, पर जब नुकीली कीलें मेरे शरीर में लगाई गई थीं तब तो मुझे असह्य पीड़ा हुई थी। पर तैयार हो जाने पर अपने रंग-रूप को देखकर मेरे आनंद का ठिकाना न रहा। खूब सजाने-सँवारने के बाद कंपनी ने मुझे बक्से में बंद करके एक दुकानदार के पास भेज दिया। मेरे साथ मेरा दूसरा साथी भी था। 


वह भी बिलकुल मेरी ही तरह के रंग-रूप का था। एक दिन दुकान में एक ग्राहक आया और काफी देख-परखकर उसने मुझे खरीद लिया। अब मेरी जीवनयात्रा शुरू हुई। मुझे पहनकर चरमर-चरमर करता जब मेरा मालिक घर पहुंचा, तब सबने मेरी बहुत प्रशंसा की। कोई मेरी ओर देखता, तो कोई कीमत पूछता। इसके बाद मालिक की सेवा करता हुआ मैं न जाने कहाँ-कहाँ घूमता रहा।


जब मेरा मालिक घर के बाहर निकलता तब मैं उसके सुख का पूरा-पूरा ख्याल रखता था। जब वह सड़क पर चलता तो मेरी यह कोशिश रहती थी कि कहीं कोई चीज उसके पैर में चुभ न जाए। शहर में बसों, रिक्शों और टैक्सियों को देखकर मेरा मन ललचाया करता, पर मेरा मालिक तो मुझे धूप से जलती सड़क पर ही घसीटता रहता।


पॉलिश तो वह तभी कराता, जब कभी उसे ससुराल जाने का मौका मिलता। इस प्रकार करीब तीन साल तक मैंने उस मालिक की सेवा की। इसी बीच मैं बिल्कुल घिस गया और जगह-जगह से फट गया। मेरे मालिक ने एक दो बार मोची से मेरी मरम्मत भी करवाई, लेकिन मेरे दिन ढल चुके थे। आखिर एक दिन मालिक ने नए जूते खरीद लिए और मुझे घर के बाहर फेंक दिया।


इस छोटे से जीवन में भी मैंने संसार का बहुत सा अनुभव प्राप्त कर लिया है। मुझे बनाने के बदले में कारीगर को मजदूरी मिली, कंपनी को रुपये मिले, दुकानदार को कमिशन मिला, मालिक तीन साल तक अपने पैरों की रक्षा करता रहा, लेकिन मुझे क्या मिला?


हाँ, मैंने मनुष्य की जो सेवा की उससे मुझे संतोष जरूर मिला है, लेकिन इस सेवा का बदला मुझे घर के बाहर फेंककर दिया गया है, इसका मुझे दुख है। पर मेरा जीवनकार्य पूरा हो चुका है, अब तो मिट्टी में मिल जाऊँ, यही मेरी आखिरी इच्छा है। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए । और आगे दिया हुआ दूसरा निबंध पढ़ना मत भूलियेगा धन्यवाद  ।

 निबंध 2 


एक जूते की आत्मकथा हिंदी निबंध | AK FTE JUTE KI AATMAKTHA ESSAY IN HINDI


मैं चमड़े का एक जूता हूँ। मेरा साथी भी मेरे पास में ही पड़ा है। हम दोनों सदा साथ-साथ रहते हैं और बहुत दूर-दूर तक चल चुके हैं। आज हमारी जबान चलना चाहती है। अब हममें कोई दम नहीं रह गया है। पर हमारी आत्मकथा बहुत रोचक है। ध्यान से सुनिए।


हमारा जन्म ‘बाटा शू कंपनी' के कारखाने में हुआ था। पहले मैं एक बड़ा-सा बढ़िया चमड़ा था। कारीगर ने इस चमड़े में से काटकर हमें निकाला था। उसने बड़ी लगन से हमें तैयार किया। बनते समय हमें काफी पीड़ा सहन करनी पड़ी थी। लेकिन बनकर तैयार हो जाने पर हमारी शोभा निराली थी। क्या चमक थी हमारी !


कुछ दिनों बाद हमें कारखाने से मुंबई भेज दिया गया। हम जूतों की एक शानदार दुकान में पहुँचे। हमें दुकान के शो-केस में सजा दिया गया। एक दिन दुकान में एक नौजवान आया। हमारी जोड़ी उसे भा गई। उसने हमें खरीद लिया और अपने घर ले आया।


उसी दिन से मेरी जीवन-यात्रा आरंभ हो गई। वह युवक हमें पहनकर बहुत रौब से बाहर निकलता। हमें भी बहुत गर्व होता था। हम उसके पाँवों की रक्षा करते थे। उन्हें धूल-गंदगी और काँच-कील से बचाते थे। पर वह नौजवान बहुत कंजूस था। 


महीनों बीत जाते, पर वह हम पर पालिश तक नहीं कराता था। एक बार तो मेरी सिलाई टूट गई। फिर भी वह मुझे रगड़ता रहा। जब तल्ला निकलने की नौबत आ गई, तब कहीं जाकर उसने मुझे मोची से सिलवाया। उसे किसी वाहन में बैठते हुए हमने अपनी जिंदगी में नहीं देखा। 


बस में भी वह मजबूरी में ही सवार होता था। पैसे बचाने के चक्कर में वह अकसर पैदल ही चलता था। इसलिए सड़क पर घिस-घिस कर हमारी बुरी हालत हो गई। पर इस हालत में भी हम उसकी सेवा करते ही रहे।


हमने लगातार ढाई-तीन साल तक उस युवक की सेवा की। पर अब हम जगह-जगह से फट चुके थे। पहनने लायक भी नहीं रहे। फिर भी यह युवक हमारा पिंड छोड़ने को तैयार नहीं था। मोची से जैसे-तैसे हमें सिलवा कर अपना काम चलाए जा रहा था। 



पर एक दिन हमारी जीवन-शक्ति ने जवाब दे दिया। आखिरकार उसे नए जूते खरीदने पड़े। नए जूते आते ही उसने हमें घर से बाहर फेंक दिया। अब मैं यहाँ पड़ा-पड़ा सोच रहा हूँ कि कितना स्वार्थी था वह युवक। जब तक उसका स्वार्थ था, तब तक वह हमें पाँव से चिपकाए रहा। अब हमारी जरूरत नहीं रही, तो हमें घर से बाहर फेंक दिया।