भ्रष्टाचार पर निबंध | bhrashtachar par nibandh

निबंध 1
नमस्कार  दोस्तों आज हम भ्रष्टाचार पर निबंध इस विषय पर निबंध जानेंगे।इस लेख मे कुल 4 निबंध दिये गये हे जिन्‍हे आप एक -एक करके पढ सकते हे ।  मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में रहकर जीवनयापन करते हुए अनेक प्रकार के क्रिया-कलापों में निजी एवं राष्ट्रीय विकास करता है। इस प्रकार समाज ही राष्ट्रीय विकास की आधारशिला है। यदि समाज में स्वच्छ सत्वृत्तियां पनपती हैं तो वह समाज भला समाज कहलाता है। ऐसा समाज राष्ट्र की प्रगति में सहायक है। यदि समाज में दुष्प्रवृत्तियाँ पनपती हैं तो कहा जाता है कि समाज में भ्रष्टाचार व्याप्त है। भ्रष्टाचार राष्ट्र को पतन के गर्त में ले जाता है।

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भ्रष्टाचार शब्द का सन्धिविच्छेद करें तो होगा भ्रष्ट + आचार। आचरण में भ्रष्ट हो जाना, हट जाना या पतित होना ही भ्रष्टाचार है। भ्रष्टाचार एक ऐसा कोढ़ है जो राष्ट्र को अशांति, स्वार्थपरता, अनैतिकता का गढ़ बना देता है। अन्तर्मन को खोखला कर डालता है।


स्वतन्त्रता पश्चात् भारत की विकास दर चाहे जो भी रही हो पर जनसंख्या और भ्रष्टाचार के क्षेत्र में हमने प्रगति के कीर्तिमान स्थापित किए हैं। जनसंख्या के क्षेत्र में हम चीन के बाद दूसरे स्थान पर हैं और भ्रष्टाचार के क्षेत्र में हम इण्डोनेशिया, चीन के बाद तीसरे स्थान पर हैं। 


जहां जनसंख्या वृद्धि के कारण बेरोजगारी, निर्धनता, मुद्रास्फीति, भुखमरी, अशिक्षा आदि अनेक कुरीतियों ने जन्म लिया, वही भ्रष्टाचार के कारण इन कुरीतियों का रूप विकराल होता जा रहा है। जहां बढ़ती हुई जनसंख्या मांग में वृद्धि करती है, वहीं भ्रष्टाचार आपूर्ति
को घटाता है। 


सारे भारत में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। जीवन का कोई भी क्षेत्र भ्रष्टाचार से अछूता नहीं है। छोटे-से-छोटे कर्मचारी से लेकर ऊंचे-से-ऊंचे पद पर आसीन सभी लोग इस रोग से ग्रस्त हैं। भले ही कोई भी किसी पद पर क्यों न हो, भ्रष्टाचार की बहती गंगा में स्नान करना अपना पावन कर्त्तव्य समझता है। सब भ्रष्टाचार के सहारे अपना घर भरने में लगे हैं। 


बिना रिश्वत दिए दफ्तरों में फाइल आगे नहीं सरकती। भेंट चढ़ाएंगे तो ठेका मिलेगा। मुट्ठी गर्म करेंगे तो नौकरी मिलेगी। यहां तक कि जीवन साथी की तलाश के लिए भी 'दहेज' रूपी भेंट चढ़ानी पड़ती है। मानों कन्या न हुई, खरीद-फरोक्त की चीज़ हो गई। कभी-कभार कक्षा में दर्शन देने वाला छात्र सर्वाधिक अंक पाता है तो वहीं सारा साल जी-तोड़ मेहनत करने वाला छात्र पीछे रह जाता है। कालाबाजारी होती है। कर चोरी होती है। चपरासी से लेकर विधायक तक बेचे-खरीदे जाते हैं। नकली दवाइयों का प्रचलन है और खाने-पीने की चीजें मिलावटी हैं। भ्रष्टाचारी दोनों हाथों से देश को लूट रहे हैं।



जैसे-जैसे समय बीत रहा है, भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। लोग अपनी प्राचीन संस्कृति को भूल गये हैं। त्याग की भावना खत्म हो गई हैं। राष्ट्र प्रेम का अभाव है। लोग कहा करते थे कि गांधी जी चाहें न चाहें गांधीवाद रहेगा। नाथूराम गोडसे ने तो गांधी जी के शरीर का अंत किया था पर जिस गांधीवाद को सम्पूर्ण विश्व श्रृद्धाभाव से देखता है, उस गांधीवाद की अब रोज हत्या होती है। आज का युग भौतिकवादी युग है। धन उसका प्रधान अंग है। जीवन के हर क्षेत्र में धन की महत्ता दिखाई देती है।


 सम्मान केवल धन की अधिक मात्रा पर ही निर्भर करता है। गलत तरीके से धन कमाने की प्रवृत्ति समाज में बढ़ रही है। धर्म और कर्म को लोग तिलांजलि देने लगे हैं, क्योंकि लोग धन की विजय और धर्म और कर्म की पराजय होते हुए देख रहे हैं। धन के द्वारा धर्म, कर्म और सभी कुछ खरीदा जा सकता है। 


धन साधना में लीन लोग यह भूल बैठे हैं कि उनके पास धन किस साधन से आता है। जिस प्रकार अर्जुन को केवल चिड़िया की आंख नजर आती थी उसी प्रकार आज लोगों को केवल धन नज़र आता है। लोग धन के लिए बुरे-से-बुरे काम करने को तैयार हैं। वे नैतिकता और मानवता के मूल्यों को भूलकर धन के पराधीन हो गये हैं।
प्रशासन की शिथिलता भी भ्रष्टाचार का एक प्रमुख कारण है।


 नेतागण नोट के बदले वोट लेकर सत्ता में आते हैं। चुनाव जीतने के लिए अनेक गलत तरीके प्रयोग में लाते हैं। भ्रष्ट नेता भ्रष्टाचार को मिटाने के नारे जनता को देकर भ्रष्टाचार द्वारा अपने घर भरते हैं और अगले चुनावों के लिए कोष तैयार करते हैं। हमारे प्रशासन में प्रत्येक कार्य कछुए की चाल से होता है इसलिए सामान्य जन अपना कार्य शीघ्र करवाने के लिए रिश्वत देने को तैयार हो जाता है।
 
 
भुखमरी, बेरोजगारी, महंगाई, निर्धनता, अशिक्षा आदि कुरीतियां भी भ्रष्टाचार को जन्म देती हैं। जब व्यक्ति भूखा हो तो उसे कुछ नहीं सूझता, वह अपना पेट भरने के लिए गलत काम करने के लिए तैयार हो जाता है। कहावत भी है

भूखे भजन न होये गोपाला।
यह ले कंठी, यह ले माला॥

 आज हमारे यहां बेरोजगारी बहुत है। पढ़ने-लिखने के बाद भी अनेक युवक बेकार बैठे हैं। इस तरह उनकी प्रतिभा को जंग लग जाती है और आखिर में बेरोजगारी से परेशान होकर गलत रास्तों पर चल पड़ते हैं। बढ़ती हुई महंगाई भी अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति को भ्रष्टाचारी बना डालती है। निर्धन व्यक्ति घर चलाने के लिए बेईमानी का दामन थाम सकता है। अशिक्षित व्यक्ति को भले-बुरे की अक्ल नहीं होती। वह जाने-अनजाने दूसरों के हाथों खिलौना बनकर भ्रष्टाचार को गति प्रदान करता है। 


नैतिक मूल्यों का ह्रास भी भ्रष्टाचार का एक प्रमुख कारण है। शिक्षा के व्यावसायीकरण के कारण नैतिक शिक्षा जनसाधारण से दूर हो रही है। अत: नैतिकता व नियमितता का उचित वातावरण नहीं बन पाया। ऐसे वातावरण में व्यक्ति के भ्रष्ट होने की सम्भावना अधिक होती हैं।


भ्रष्टाचार रूपी इस कोढ़ की रोकथाम अनिवार्य है। यदि भ्रष्टाचार के कारणों को मिटा दिया जाय तो भ्रष्टाचार स्वतः नरक सिधार जाएगा। इसके लिए सर्वप्रथम शासन-व्यवस्था में परिवर्तन करना होगा। राजनीतिज्ञों और अपराधियों की धुरी को तोड़ना होगा। ऐसे उपाय करने होंगे जिससे अच्छे लोग ही राजनीति में प्रवेश पा सकें। नियम और अनुशासन का पालन कठोरता से किया जाना चाहिए। 


भ्रष्टाचारी को कठोर दंड मिलना चाहिए। बढ़ती हुई जनसंख्या को रोकना होगा। मुद्रास्फीति को रोककर देश की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनाने के प्रयास करने होंगे। सुदृढ़ आर्थिक स्थिति बेरोजगारी, भुखमरी, निर्धनता, महंगाई, अशिक्षा आदि कुरीतियों को धीरे-धीरे खत्म कर सकती है। इन कुरीतियों के विनाश के दूसरे अन्य उपाय भी अपनाने होंगे। 


 नैतिक शिक्षा को अनिवार्य शिक्षा का अंग बनाया जाए। इस काम में जनसंचार माध्यम भी उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। शिक्षा के प्रचार-प्रसार से मनुष्य को अच्छे-बुरे का ज्ञान होता है। वह भ्रष्टाचार से दूर भागता है।
जो सदाचारी हैं, उनका मान-सम्मान होना चाहिए। 


भ्रष्टाचार की निंदा होनी चाहिए, अन्यथा भ्रष्टाचार बढ़ता जाएगा। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी कथनी और करनी में समानता रखें। हम न स्वयं भ्रष्ट आचरण करें, न दूसरों को करने दें। मानवीय मूल्यों की स्थापना कर भ्रष्टाचार को बाहर जाने का रास्ता दिखाना होगा अन्यथा राष्ट्र विखंडित हो जाएगा।
दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए । आगे दिया हुआ दूसरा निबंध पढ़ना मत भूलियेगा धन्यवाद  ।



निबंध 2

भ्रष्टाचारः एक सामाजिक रोग


प्रस्तावना-
भारतवर्ष में इस समय समस्याओं की बाढ़ आई हुई है। राजनीति, धर्म, अर्थ ही नहीं बल्कि वैयक्तिक तथा पारिवारिक परिवेश भी समस्याओं से घिरा हुआ है, तथा उन से जूझ रहा है। इन समस्याओं में घिरी मानवता दिन-दिन दम तोड़ रही है।


भवन बन रहे हैं, कारखाने लग रहे है, भीड़ बढ़ रही है परन्तु मानव खोता जा रहा है. छोटा होता जा रहा है। क्यों ? क्योंकि भ्रष्टाचार का दानव प्रत्येक क्षेत्र में उसे दबोच रहा है. उसका गला घोंट रहा है। यह ठीक है कि मानव-मनोविज्ञान के अनुसार मानव में सद् तथा असद् वृत्तियाँ सदा से ही रही हैं। किन्तु जब-जब असद् वृत्तियाँ बढी हैं, भ्रष्टाचार पनपा है।


भ्रष्टाचार का अर्थ-भ्रष्टाचार शब्द भ्रष्ट + आचार दो शब्दों के योग से बना है। । 'भ्रष्ट' शब्द का अर्थ है बिगड़ा हुआ अर्थात् निकृष्ट कोटि की विचारधारा। 'आचार' का अर्थ है आचरण। दूसरे शब्दों में भ्रष्टाचार से तात्पर्य निन्दनीय आचरण से है, जिसके वश में होकर व्यक्ति अपने कर्त्तव्य को भूलकर अनुचित रूप से लाभ प्राप्त करता है। इसके अतिरिक्त जब व्यक्ति अपनी वैयक्तिक, पारिवारिक तथा सामाजिक मर्यादा उल्लंघन कर, स्वेच्छाचारी हो जाता है, उस दशा में उसे भ्रष्टाचारी कहते हैं।


भ्रष्टाचार का जन्म-भारतवर्ष में प्राचीनकाल से भ्रष्टाचार की घटनाएँ सुनी चली आ रही हैं। चाणक्य के अर्थशास्त्र में भ्रष्ट अधिकारियों का उल्लेख मिलता है। उसके पश्चात् गुप्त साम्राज्य और मुगल साम्राज्य का जहाँ तक प्रश्न है, उसका अन्त तो उसके भ्रष्ट और अत्याचारी अधिकारियों के कारण हुआ। 


परन्तु भ्रष्टाचार में सबसे अधिक वृद्धि ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना के बाद हुई है। पहले तो अंग्रेजों ने अपने लिए सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए भारतीय अधिकारियों को भ्रष्ट किया। उसके बाद जब भारत स्वतन्त्र हो गया और भारतीयों का स्वयं का शासन स्थापित हो गया तो वे स्वयं भी इस परम्परा को बढ़ाते गए।


भ्रष्टाचार वृद्धि के प्रमुख कारण-भ्रष्टाचार वृद्धि के अनेक कारण हैं, उनमें सत्ता का स्वाद जो राजनीतिज्ञों को प्राप्त हुआ प्रमुख है। लार्ड एक्टन का कहना है कि सत्ता भ्रष्ट करती है और पूर्ण सत्ता पूर्ण भ्रष्ट करती है। भारत की स्थिति में पूर्णतया सत्य प्रतीत होता है। 


स्वार्थ और कामना इस रोग के मूल कारण हैं। इनके अतिरिक्त अन्य कारण हैं-लोगों की आजीविका के साधनों की कमी का होना, जनसंख्या में तीव्रगति से वृद्धि होते रहना, भौतिकता एवं स्वार्थपरता की बढ़ोतरी होते रहना, सरकार की ढीली नीति का होना, फैशन का बढ़ना, शिक्षा की कमी होना, झूठी शान-शौकत बनाए रखना, महँगाई का तेजी से बढ़ना व सामाजिक कुरीतियों यथा दहेज-प्रथा, बड़े-बड़े भोज आदि का तेजी से फैलना। इस भौतिकवादी युग में मानव अधिक धन का संग्रह करने का इच्छुक रहता है।



 इसीलिए वह भ्रष्ट तरीके अपनाकर धन प्राप्त करना चाहता है। भ्रष्टाचार को बढ़ाने एवं प्रश्रय देने में राजनैतिक दलों का भी कम हाथ नहीं है। राजनैतिक दल अनेक प्रकार से विभिन्न संस्थाओं से धन प्राप्त करते हैं और उनका समर्थन करते हैं। भारत में इन कारणों से भ्रष्टाचार तेजी से बढ़ता जा रहा है।
 
 
राजनीति और भ्रष्टाचार :- आज भारत की राजनीति पूर्णतया भ्रष्ट है। राजनीतिक भ्रष्टाचार को जन्म देने में व्यापारी वर्ग का सबसे बड़ा हाथ है। वे बड़ी-बडी धनराशियाँ देकर उससे दस गना रियायतें प्राप्त करते हैं। इससे एक ओर राजनीतिक भ्रष्टाचार को बढावा मिलता है तो दूसरी ओर समाज पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है। 


इसीलिए व्यापारी वर्ग अपने लाभ के लिए मिलावट, चोरबाजारी तथा मुनाफाखोरी आदि सभी साधनों का सहारा लेता है। और सत्ता-प्रतिष्ठान इसे रोकने में कठिनाई और हिचक अनुभव करता है। इसके अतिरिक्त भारत में प्रशासनिक भ्रष्टाचार भी पूर्णतया व्याप्त है।

 प्रशासनिक भ्रष्टाचार में पुलिस सबसे अग्रणी है। परन्तु अभी जो नए तथ्य सामने आए हैं उनसे पता चलता है कि देश की सबसे बड़ी प्रशासनिक सेवा आई. ए. एस. के अधिकारी भी भ्रष्ट आचरण तथा घूसखोरी से अछूते नहीं रहे। बुराई तथा दुराचरण की आदतें ऊपर से आती हैं। 'यथा राजा तथा प्रजा' एक पुरानी कहावत है। जब नेता ही अनाचारी, दुरात्मा तथा घूसखोर होंगे तो उनके अधीनस्थ कर्मचारियों से सदाचरण की उम्मीदें कैसे की जा सकती हैं। 


बोफोर्स तोपों का मामला अभी तक ठण्डा नहीं हुआ। कहीं हवाला काण्ड, कहीं चारा काण्ड तो कहीं अपनों को चुन-चुनकर आर्थिक अनुदान देना और पुलिस बलों में केवल एक जाति के लोगों का भर्ती करना भ्रष्टाचार के उदाहरण हैं।


भ्रष्टाचार के रूप-आज भ्रष्टाचार दो रूपों में दिखाई देता है-सरकारी तन्त्र तथा व्यक्ति समुदाय के रूप में। आज मानव भौतिक सुखों के पीछे बहुत तीव्र गति से भाग रहा है। उन सुखों को पाने की चिंता में वह अच्छे-बुरे का विवेक खो बैठा है। निजी हित और लाभ प्राप्ति किस तरह से हो इसकी चिंता उसे सताती रहती है। अपनी इस चिंता को दूर करने के लिए वह नैतिकता का सहारा लेकर अनैतिकता की ओर अग्रसर होता है। जबकि यह कार्य मानव सिद्धान्तों के एक दम विपरीत है, फिर भी वह ऐसा करने को बाध्य है।


 सरकारी या गैर सरकारी, छोटे-बड़े सभी कर्मचारी अपने जीवन को अधिक सुखद एवं विलासी बनाने के लिए धन संचय में लगे रहते हैं। इसके लिए वे सभी प्रकार के अनैतिक कार्यों का सहारा लेते हैं। तब भ्रष्टाचार हमारी आत्म-लिप्सा तथा स्वार्थ-भावना के ही परिणाम हैं। अर्थात् इन्हीं से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है।


भ्रष्टाचार के परिणाम-बिना रिश्वत के फाइल एक मेज से दूसरी मेज तक नहीं पहुँचती, लाइसेंस का मिलना तो और भी कठिन है। आदमी अपनी जमीन पर अपना घर नहीं बना सकता, उसे पीने का पानी तथा विद्युत नहीं मिल सकती, जब तक सम्बन्धित क्लर्क, जूनियर इन्जीनियर के माध्यम से ऊपर तक के अधिकारियों को खुश नहीं किया जाता। इसके विपरीत रिश्वत देकर सरकारी जमीन पर भी अवैध तरीके से चार-चार मंजिल ऊँची बिलडिंगें बन जाती हैं। 


किस क्षेत्र की बात करें, शिक्षा सबसे पवित्र क्षेत्र माना गया है, परन्तु भारत में तो उसी का सबसे बुरा हाल है। । भ्रष्टाचार को दूर करने के उपाय-भ्रष्टाचार को रोकने के लिए धार्मिक, नैतिक एवं सदाचार जैसे सिद्धान्तों को अपनाया जाए। सर्वप्रथम तो हमें भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए कत-संकल्प होना चाहिए।


 भ्रष्टाचार जैसे सामाजिक रोग से बचने के लिए हमें भौतिकता के स्थान पर आध्यात्मिकता का प्रचार करना चाहिए। प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति को रोजगार दिया जाए, तो उसे जीवन-यापन करने के लिए भ्रष्ट तरीके नहीं अपनाने होंगे। राजनीतिज्ञों का दैनिक-प्रशासन में हस्तक्षेप बन्द करना होगा। जनसंख्या में कमी, भौतिकता एवं स्वार्धपरता की वृद्धि में कमी तथा सरकार की राजनीति में सख्ती लानी होगी तथा मंहगाई को खत्म करना होगा।



उपसंहार : - हमें भ्रष्टाचार रूपी दानव को शीघ्रता से कुचलना होगा। यदि हम ऐसा नहीं कर पाए तो परिणाम होगा कि हिंसक, असामाजिक व अराजक तत्व चारों ओर खुले आम अपनी मनमानी करने लगेंगे तथा स्थिति नियन्त्रण से बाहर हो जाएगी। 


अतः हमें भ्रष्टाचार से जीवन को मुक्त कराने के लिए युद्ध-स्तर पर कार्य करने की आवश्यकता है। भ्रष्टाचार रोग का एक ही निदान है-मन का नीरोग होना। मन तभी नीरोग होगा, जब हम अन्दर और बाहर से मन को भ्रष्टाचार की ओर ले जाने वाली पशु-वृत्तियों को छोड़ कर इन्द्रिय-संयम द्वारा त्यागमय जीवन का आनन्द लेंगे। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।


निबंध 3

भ्रष्टाचार पर निबंध | bhrashtachar par nibandh


एक समय था, जब हर चुनाव के पहले राजनीतिक पार्टियाँ इस देश से भ्रष्टाचार मिटा देने का वादा किया करती थीं। चुनाव संपन्न होते गए, अदल-बदल कर राजनीतिक पार्टियाँ भी सत्तारूढ़ होती गईं, किंतु भ्रष्टाचार दिनोंदिन बढ़ता ही गया।



अब राजनीतिक पार्टियों और उनके नेताओं ने भ्रष्टाचार मिटाने की बातें करना भी छोड़ दिया है। ऐसा लगता है, जैसे भ्रष्टाचार रूपी दैत्य के आगे सभी असहाय और विवश बन गए हैं।



भ्रष्टाचार का अर्थ है, दूषित आचरण या बेईमानी। आज यह बेईमानी या भ्रष्टाचार जीवन के हर क्षेत्र में व्याप्त दिखाई देता है। सरकारी कार्यालयों, बीमा कंपनियों, बैंकों, आयकर विभाग के कार्यालयों आदि में भ्रष्टाचार का खुले आम बोलबाला दिखाई देता है।



शिक्षा, खेल तथा चिकित्सा के क्षेत्रों में भी भ्रष्टाचार की काली छाया फैली हुई है। आज भ्रष्टाचार के उदाहरण सुनकर कोई नाक-भौं नहीं सिकोड़ता। एक तरह से सभी ने इसे वर्तमान जीवन-पद्धति के अनिवार्य अंग के रूप में स्वीकार कर लिया है। यह सच है कि आज भी ऐसे अनुशासनप्रिय व्यक्ति हैं, 




जो भ्रष्टाचार से कोसों दूर रहते हैं। किंतु वे भ्रष्टाचारियों का विरोध करने का साहस नहीं करते। यदि कोई इस प्रकार का दुस्साहस करता भी है, तो उसे मुँह की खानी पड़ती है।



भ्रष्टाचार वैसे तो विश्व के सभी देशों में है, किंतु हमारे देश में तो वह चरम सीमा पर पहुँच गया है। उसने देश के राष्ट्रीय जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया है। भ्रष्टाचार फैलने के अनेक कारण हैं। सबसे प्रमुख कारण है,।



हमारे देश की चुनाव-पद्धति। चुनाव में खडे होनेवाले प्रत्याशी को चुनाव जीतने के लिए पानी की तरह पैसा बहाना पड़ता है। चनाव में सफल होते ही वह खर्च की गई धनराशि किसी भी तरह से प्राप्त करने के लिए अधीर हो उठता है। उसकी यह अधीरता ही भ्रष्टाचार को जन्म देती है।




भ्रष्टाचार फैलने का एक अन्य कारण है- भौतिकवादी सभ्यता का प्रसार। आज हमारे देश में अमेरिका और पश्चिमी देशों की अंधाधुंध नकल करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इससे भोगवादी संस्कृति फैल रही है। लोग सांसारिक सुख-सुविधाओं को धर्म और सदाचार से अधिक महत्त्व देने लगे हैं। 



उनमें रातोंरात धनवान बन जाने की इच्छा जोर पकड़ रही है। चारों तरफ से धन बटोरने के लिए धोखाधड़ी, छल-कपट आदि सभी प्रकार के अनुचित उपायों का सहारा लिया जा रहा है। इस प्रकार, अपनी भौतिक समृद्धि बढ़ाने के लिए लोगों ने भ्रष्टाचार को ही शिष्टाचार मान लिया है।



भ्रष्टाचार हमारे राष्ट्रीय जीवन के लिए घोर अभिशाप बन गया है। गरीब- अमीर, शिक्षित-अशिक्षित, राजनेता-बुद्धिजीवी, सभी ने भ्रष्टाचार को जीवन का अभिन्न अंग मान लिया है। राशन कार्ड बनवाने, यात्रा के लिए आरक्षण करवाने जैसे छोटे-छोटे कामों के लिए भी रिश्वत का सहारा लेना अनिवार्य हो गया है।



शिक्षा के पवित्र क्षेत्र में भी भ्रष्टाचार ने अपने पैर पसार लिये हैं। डोनेशन दिये बिना बच्चों को किसी अच्छे स्कूल में दाखिल कराना असंभव-सा हो गया है। लोग राष्ट्रीय कर्तव्य से विमुख हो गए हैं। रातोरात धनवान बनने के लिए तस्करी करने में भी उन्हें संकोच नहीं हो रहा है। 



पैसा बटोरने के लिए नशीले पदार्थों का व्यापार धड़ल्ले से चल रहा है। लोगों ने देशभक्ति तथा कर्तव्यनिष्ठा को तिलांजलि दे दी है। लोग अपनी सामाजिक जिम्मेदारी भुला बैठे हैं। भ्रष्टाचारी व्यक्तियों को समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त हो रही है। देश को राह दिखाने का दम भरनेवाले नेतागण भ्रष्टाचार के दलदल में फँसे हुए हैं। 




कानून और व्यवस्था लागू करनेवाले लोग भ्रष्टाचारियों के हाथ के खिलौने बने हुए हैं। देश का युवावर्ग भ्रष्टाचारी व्यक्तियों की तड़क-भड़क देखकर उन्हें ही आदर्श मानकर उनका अनुकरण कर रहा है। युवकों के मन से राष्ट्रप्रेम और नैतिकता लुप्त होती जा रही है। वे भ्रष्टाचार को ही जीवन का मलमंत्र मान बैठे हैं।



यदि हम अपने इस महान राष्ट्र को दुनिया के प्रथम श्रेणी के राष्ट्रों की पंक्ति में स्थान दिलाना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें आत्म-निरीक्षण करना होगा। उसके बाद, यदि हमारे जीवन में भ्रष्टाचार का लेशमात्र भी हो, तो हमें उसे तुरंत दूर कर देना चाहिए। 



साथ ही ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह हमें ऐसी शक्ति दे कि हम अपने देश को भ्रष्टाचार रूपी भस्मासुर के पाश से मुक्त करा सकें। यदि हम दृढतापूर्वक भ्रष्टाचार निवारण का कार्य हाथ में लेंगे, तो भ्रष्टाचार के भस्मासुर को भस्म करने में अवश्य सफल होंगे। 



इसके साथ ही सरकार को भी भ्रष्टाचारियों को दंडित करना चाहिए और जनता द्वारा उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाना चाहिए। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए । और आगे दिया हुआ दूसरा निबंध पढ़ना मत भूलियेगा धन्यवाद  ।


निबंध 4


भ्रष्टाचार पर निबंध | bhrashtachar par nibandh


भ्रष्टाचार को लेकर 'नेशलन ब्राइब इंडेक्स फ्रॉम बर्थ टिल डेथ' शीर्षक के तहत दिल्ली से प्रकाशित होने वाली साप्ताहिक अंग्रेजी पत्रिका ‘आउट लुक' ने 1996 के आखिर में कुछ ऐसे हृदयविदारक तथ्य प्रस्तुत किये थे, जिनका यहाँ जिक्र करना प्रासंगिक होगा।


आउट लुक' द्वारा प्रकाशित घूस लेने वाली प्रवृत्ति का यह सूचकांक बच्चे के जन्म से शुरू होकर जवानी, बुढ़ापे से होते हुए मृत्यु तक जाता है। इस सूचकांक के अनुसार एक आम भारतीय को अपने बच्चे का जन्म प्रमाण-पत्र हासिल करने के लिए क्लर्क को 500 रुपए तक घूस देने पड़ते हैं।


जीवन भर घूस के सहारे जिन्दा रहने को मजबूर जब आम भारतीय मरता है तो श्मशान घाट पर उसके अंतिम संस्कार के लिए 200 से लेकर 500 रुपए तक रकम घूस के रूप देनी पड़ती है।



मूंदड़ा कांड को छोड़ दिया जाए तो पं० नेहरू के जमाने में ऐसे लगभग चार मामले प्रकाश में आए थे। 1949 में 216 करोड़ रुपए का जीप घोटाला ऐसा पहला मामला था,



जिसमें ब्रिटेन स्थित तत्कालीन उच्चायुक्त कृष्ण मेनन का नाम उछला था। दूसरा मामला 1956 का शिराजुद्दीन प्रकरण था, जिसमें नेहरू मंत्रिमंडल के तत्कालीन खान एवं ऊर्जा मंत्री के०डी० मालवीय पर गम्भीर आरोप लगे थे। तीसरा प्रकरण जहाजरानी उद्योगपति धरमतेजा का था, जिन्हें 1960 में पं० नेहरू ने बिना किसी जाँच-पड़ताल के 20 करोड़ रुपए के ऋण दिवलाये थे। यह प्रकरण 1985 तक चलता रहा जब तक कि धरमतेजा की मृत्यु नहीं हो गई।


श्रीमती इंदिरा गाँधी के आने के बाद 1971 में नागरवाला काण्ड हुआ जो आज तक रहस्य बना हुआ है। कहा जाता है कि भारतीय खुफिया विभाग के लिए काम कर चुके नागरवाला ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के लिए स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के मुख्य कैशियर वेद प्रकाश मल्होत्रा से 60 लाख रुपये लिए थे।



नागरवाला गिरफ्तार हुआ और जेल में ही उसकी मृत्यु हो गई। कुछ ही दिनों बाद इस पूरे मामले की जाँच कर रहा पुलिस अधिकारी भी एक कार दुर्घटना में मार दिया गया।



1987 के बोफोर्स प्रकरण ने भ्रष्टाचार की एक बिल्कुल भिन्न तस्वीर प्रस्तुत की। दरअसल, संजय गाँधी ने जिस 'कटसिस्टम' यानि सौदों में कमीशन की अवधारणा प्रस्तुत की थी, उनका पहला उदाहरण था बोफोर्स कमीशनखोरी। वैसे पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर के अनुसार, यह कोई नया मामला नहीं है। 



आजादी के बाद से ही घोषित तौर पर हर सौदे में हमारे यहाँ कमीशनखोरी की प्रथा कायम रही है। जो भी हो इसकी जानकारी न तो संसद को दी जाती है और न ही आम मतदाता को, जिसे लोकतंत्र का भाग्यविधाता माना जाता है।



बहरहाल राजीव गाँधी ने जब यह कहा कि विकास कार्यों के मद में खर्च होने वाली धनराशि का मात्र दस फीसदी हिस्सा ही नीचे तक पहुँच पाता है और 90% हिस्सा बिचौलिए हड़प लेते हैं, तब लोगों को भ्रष्टाचार की व्यापकता और भ्रष्टाचारी का अंदाजा लगा। 



शेयर घोटाला, चीनी घोटाला, टेलीकॉम घोटाला, चारा घोटाला, हवाला और आवास घोटाला, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड, यूरिया घोटाला न जाने कितने घोटाले हुए और हो रहे हैं और जो सत्ता में है, उसका भ्रष्ट होना जन्मसिद्ध अधिकार है।



एक जमाना था जब विपक्ष को कुछ-कुछ शास्त्री जी जैसा ही अपेक्षाकृत ईमानदार माना जाता था। जैसे-जैसे भारतीय राजनीति में कांग्रेस नाम की एक पार्टी का वर्चस्व समाप्त होता गया, वैसे-वैसे भ्रष्टाचार का भी विकेन्द्रीकरण हुआ। 



हमारा लोकतंत्र एक-दूसरे पर अंकुश रखकर सबको सही रखने और संतुलित करने के बजाय एक-दूसरे को भ्रष्ट करने और फिर भ्रष्टाचार में समान भागीदारी दिलाने का तंत्र हो गया।



विपक्ष भी जब वही करने लगा हो, जो सत्तापक्ष के लोग करते हैं तो कहने की जरूरत नहीं कि वे एक-दूसरे के भ्रष्टाचार को दबाकर नहीं तो कम-से-कम ढककर जरूर रखने लगे। 



भंडाफोड़ का डर जितना सत्तापक्ष को है लगभग उतना ही उसका विरोध करने वाले विपक्ष को था। इसलिए जो भी घोटाला उजागर होता है, उसकी सभी परतें खोलने, सीवन उधेड़ने और तह तक पहुँचकर अपराधियों के दंड देने तक नहीं ले जाया जाता है।




इस बंदरबांट में हर उस व्यक्ति को कुछ-न-कुछ मिल जाता है, जिसके पास कोई-न-कोई सत्ता है, चाहे वह विपक्ष की ही सत्ता क्यों न हो। मारा जाता है वह साधारण नागरिक जिसे हमारा लोकतंत्र अपना मालिक बताता है। 



हाशिए पर खड़ा यह आम नागरिक चुपचाप सब कछ देखते रहने के लिए अभिशप्त है। सच कहा जाए तो भ्रष्टाचार पर अंकुश तभी लग सकता है, जब सत्ता पर जनता का सीधा नियंत्रण कायम हो। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।

भ्रष्टाचार पर निबंध | bhrashtachar par nibandh

 

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नमस्कार  दोस्तों आज हम भ्रष्टाचार पर निबंध इस विषय पर निबंध जानेंगे।इस लेख मे कुल 4 निबंध दिये गये हे जिन्‍हे आप एक -एक करके पढ सकते हे ।  मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में रहकर जीवनयापन करते हुए अनेक प्रकार के क्रिया-कलापों में निजी एवं राष्ट्रीय विकास करता है। इस प्रकार समाज ही राष्ट्रीय विकास की आधारशिला है। यदि समाज में स्वच्छ सत्वृत्तियां पनपती हैं तो वह समाज भला समाज कहलाता है। ऐसा समाज राष्ट्र की प्रगति में सहायक है। यदि समाज में दुष्प्रवृत्तियाँ पनपती हैं तो कहा जाता है कि समाज में भ्रष्टाचार व्याप्त है। भ्रष्टाचार राष्ट्र को पतन के गर्त में ले जाता है।

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भ्रष्टाचार शब्द का सन्धिविच्छेद करें तो होगा भ्रष्ट + आचार। आचरण में भ्रष्ट हो जाना, हट जाना या पतित होना ही भ्रष्टाचार है। भ्रष्टाचार एक ऐसा कोढ़ है जो राष्ट्र को अशांति, स्वार्थपरता, अनैतिकता का गढ़ बना देता है। अन्तर्मन को खोखला कर डालता है।


स्वतन्त्रता पश्चात् भारत की विकास दर चाहे जो भी रही हो पर जनसंख्या और भ्रष्टाचार के क्षेत्र में हमने प्रगति के कीर्तिमान स्थापित किए हैं। जनसंख्या के क्षेत्र में हम चीन के बाद दूसरे स्थान पर हैं और भ्रष्टाचार के क्षेत्र में हम इण्डोनेशिया, चीन के बाद तीसरे स्थान पर हैं। 


जहां जनसंख्या वृद्धि के कारण बेरोजगारी, निर्धनता, मुद्रास्फीति, भुखमरी, अशिक्षा आदि अनेक कुरीतियों ने जन्म लिया, वही भ्रष्टाचार के कारण इन कुरीतियों का रूप विकराल होता जा रहा है। जहां बढ़ती हुई जनसंख्या मांग में वृद्धि करती है, वहीं भ्रष्टाचार आपूर्ति
को घटाता है। 


सारे भारत में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। जीवन का कोई भी क्षेत्र भ्रष्टाचार से अछूता नहीं है। छोटे-से-छोटे कर्मचारी से लेकर ऊंचे-से-ऊंचे पद पर आसीन सभी लोग इस रोग से ग्रस्त हैं। भले ही कोई भी किसी पद पर क्यों न हो, भ्रष्टाचार की बहती गंगा में स्नान करना अपना पावन कर्त्तव्य समझता है। सब भ्रष्टाचार के सहारे अपना घर भरने में लगे हैं। 


बिना रिश्वत दिए दफ्तरों में फाइल आगे नहीं सरकती। भेंट चढ़ाएंगे तो ठेका मिलेगा। मुट्ठी गर्म करेंगे तो नौकरी मिलेगी। यहां तक कि जीवन साथी की तलाश के लिए भी 'दहेज' रूपी भेंट चढ़ानी पड़ती है। मानों कन्या न हुई, खरीद-फरोक्त की चीज़ हो गई। कभी-कभार कक्षा में दर्शन देने वाला छात्र सर्वाधिक अंक पाता है तो वहीं सारा साल जी-तोड़ मेहनत करने वाला छात्र पीछे रह जाता है। कालाबाजारी होती है। कर चोरी होती है। चपरासी से लेकर विधायक तक बेचे-खरीदे जाते हैं। नकली दवाइयों का प्रचलन है और खाने-पीने की चीजें मिलावटी हैं। भ्रष्टाचारी दोनों हाथों से देश को लूट रहे हैं।



जैसे-जैसे समय बीत रहा है, भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। लोग अपनी प्राचीन संस्कृति को भूल गये हैं। त्याग की भावना खत्म हो गई हैं। राष्ट्र प्रेम का अभाव है। लोग कहा करते थे कि गांधी जी चाहें न चाहें गांधीवाद रहेगा। नाथूराम गोडसे ने तो गांधी जी के शरीर का अंत किया था पर जिस गांधीवाद को सम्पूर्ण विश्व श्रृद्धाभाव से देखता है, उस गांधीवाद की अब रोज हत्या होती है। आज का युग भौतिकवादी युग है। धन उसका प्रधान अंग है। जीवन के हर क्षेत्र में धन की महत्ता दिखाई देती है।


 सम्मान केवल धन की अधिक मात्रा पर ही निर्भर करता है। गलत तरीके से धन कमाने की प्रवृत्ति समाज में बढ़ रही है। धर्म और कर्म को लोग तिलांजलि देने लगे हैं, क्योंकि लोग धन की विजय और धर्म और कर्म की पराजय होते हुए देख रहे हैं। धन के द्वारा धर्म, कर्म और सभी कुछ खरीदा जा सकता है। 


धन साधना में लीन लोग यह भूल बैठे हैं कि उनके पास धन किस साधन से आता है। जिस प्रकार अर्जुन को केवल चिड़िया की आंख नजर आती थी उसी प्रकार आज लोगों को केवल धन नज़र आता है। लोग धन के लिए बुरे-से-बुरे काम करने को तैयार हैं। वे नैतिकता और मानवता के मूल्यों को भूलकर धन के पराधीन हो गये हैं।
प्रशासन की शिथिलता भी भ्रष्टाचार का एक प्रमुख कारण है।


 नेतागण नोट के बदले वोट लेकर सत्ता में आते हैं। चुनाव जीतने के लिए अनेक गलत तरीके प्रयोग में लाते हैं। भ्रष्ट नेता भ्रष्टाचार को मिटाने के नारे जनता को देकर भ्रष्टाचार द्वारा अपने घर भरते हैं और अगले चुनावों के लिए कोष तैयार करते हैं। हमारे प्रशासन में प्रत्येक कार्य कछुए की चाल से होता है इसलिए सामान्य जन अपना कार्य शीघ्र करवाने के लिए रिश्वत देने को तैयार हो जाता है।
 
 
भुखमरी, बेरोजगारी, महंगाई, निर्धनता, अशिक्षा आदि कुरीतियां भी भ्रष्टाचार को जन्म देती हैं। जब व्यक्ति भूखा हो तो उसे कुछ नहीं सूझता, वह अपना पेट भरने के लिए गलत काम करने के लिए तैयार हो जाता है। कहावत भी है

भूखे भजन न होये गोपाला।
यह ले कंठी, यह ले माला॥

 आज हमारे यहां बेरोजगारी बहुत है। पढ़ने-लिखने के बाद भी अनेक युवक बेकार बैठे हैं। इस तरह उनकी प्रतिभा को जंग लग जाती है और आखिर में बेरोजगारी से परेशान होकर गलत रास्तों पर चल पड़ते हैं। बढ़ती हुई महंगाई भी अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति को भ्रष्टाचारी बना डालती है। निर्धन व्यक्ति घर चलाने के लिए बेईमानी का दामन थाम सकता है। अशिक्षित व्यक्ति को भले-बुरे की अक्ल नहीं होती। वह जाने-अनजाने दूसरों के हाथों खिलौना बनकर भ्रष्टाचार को गति प्रदान करता है। 


नैतिक मूल्यों का ह्रास भी भ्रष्टाचार का एक प्रमुख कारण है। शिक्षा के व्यावसायीकरण के कारण नैतिक शिक्षा जनसाधारण से दूर हो रही है। अत: नैतिकता व नियमितता का उचित वातावरण नहीं बन पाया। ऐसे वातावरण में व्यक्ति के भ्रष्ट होने की सम्भावना अधिक होती हैं।


भ्रष्टाचार रूपी इस कोढ़ की रोकथाम अनिवार्य है। यदि भ्रष्टाचार के कारणों को मिटा दिया जाय तो भ्रष्टाचार स्वतः नरक सिधार जाएगा। इसके लिए सर्वप्रथम शासन-व्यवस्था में परिवर्तन करना होगा। राजनीतिज्ञों और अपराधियों की धुरी को तोड़ना होगा। ऐसे उपाय करने होंगे जिससे अच्छे लोग ही राजनीति में प्रवेश पा सकें। नियम और अनुशासन का पालन कठोरता से किया जाना चाहिए। 


भ्रष्टाचारी को कठोर दंड मिलना चाहिए। बढ़ती हुई जनसंख्या को रोकना होगा। मुद्रास्फीति को रोककर देश की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनाने के प्रयास करने होंगे। सुदृढ़ आर्थिक स्थिति बेरोजगारी, भुखमरी, निर्धनता, महंगाई, अशिक्षा आदि कुरीतियों को धीरे-धीरे खत्म कर सकती है। इन कुरीतियों के विनाश के दूसरे अन्य उपाय भी अपनाने होंगे। 


 नैतिक शिक्षा को अनिवार्य शिक्षा का अंग बनाया जाए। इस काम में जनसंचार माध्यम भी उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। शिक्षा के प्रचार-प्रसार से मनुष्य को अच्छे-बुरे का ज्ञान होता है। वह भ्रष्टाचार से दूर भागता है।
जो सदाचारी हैं, उनका मान-सम्मान होना चाहिए। 


भ्रष्टाचार की निंदा होनी चाहिए, अन्यथा भ्रष्टाचार बढ़ता जाएगा। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी कथनी और करनी में समानता रखें। हम न स्वयं भ्रष्ट आचरण करें, न दूसरों को करने दें। मानवीय मूल्यों की स्थापना कर भ्रष्टाचार को बाहर जाने का रास्ता दिखाना होगा अन्यथा राष्ट्र विखंडित हो जाएगा।
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निबंध 2

भ्रष्टाचारः एक सामाजिक रोग


प्रस्तावना-
भारतवर्ष में इस समय समस्याओं की बाढ़ आई हुई है। राजनीति, धर्म, अर्थ ही नहीं बल्कि वैयक्तिक तथा पारिवारिक परिवेश भी समस्याओं से घिरा हुआ है, तथा उन से जूझ रहा है। इन समस्याओं में घिरी मानवता दिन-दिन दम तोड़ रही है।


भवन बन रहे हैं, कारखाने लग रहे है, भीड़ बढ़ रही है परन्तु मानव खोता जा रहा है. छोटा होता जा रहा है। क्यों ? क्योंकि भ्रष्टाचार का दानव प्रत्येक क्षेत्र में उसे दबोच रहा है. उसका गला घोंट रहा है। यह ठीक है कि मानव-मनोविज्ञान के अनुसार मानव में सद् तथा असद् वृत्तियाँ सदा से ही रही हैं। किन्तु जब-जब असद् वृत्तियाँ बढी हैं, भ्रष्टाचार पनपा है।


भ्रष्टाचार का अर्थ-भ्रष्टाचार शब्द भ्रष्ट + आचार दो शब्दों के योग से बना है। । 'भ्रष्ट' शब्द का अर्थ है बिगड़ा हुआ अर्थात् निकृष्ट कोटि की विचारधारा। 'आचार' का अर्थ है आचरण। दूसरे शब्दों में भ्रष्टाचार से तात्पर्य निन्दनीय आचरण से है, जिसके वश में होकर व्यक्ति अपने कर्त्तव्य को भूलकर अनुचित रूप से लाभ प्राप्त करता है। इसके अतिरिक्त जब व्यक्ति अपनी वैयक्तिक, पारिवारिक तथा सामाजिक मर्यादा उल्लंघन कर, स्वेच्छाचारी हो जाता है, उस दशा में उसे भ्रष्टाचारी कहते हैं।


भ्रष्टाचार का जन्म-भारतवर्ष में प्राचीनकाल से भ्रष्टाचार की घटनाएँ सुनी चली आ रही हैं। चाणक्य के अर्थशास्त्र में भ्रष्ट अधिकारियों का उल्लेख मिलता है। उसके पश्चात् गुप्त साम्राज्य और मुगल साम्राज्य का जहाँ तक प्रश्न है, उसका अन्त तो उसके भ्रष्ट और अत्याचारी अधिकारियों के कारण हुआ। 


परन्तु भ्रष्टाचार में सबसे अधिक वृद्धि ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना के बाद हुई है। पहले तो अंग्रेजों ने अपने लिए सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए भारतीय अधिकारियों को भ्रष्ट किया। उसके बाद जब भारत स्वतन्त्र हो गया और भारतीयों का स्वयं का शासन स्थापित हो गया तो वे स्वयं भी इस परम्परा को बढ़ाते गए।


भ्रष्टाचार वृद्धि के प्रमुख कारण-भ्रष्टाचार वृद्धि के अनेक कारण हैं, उनमें सत्ता का स्वाद जो राजनीतिज्ञों को प्राप्त हुआ प्रमुख है। लार्ड एक्टन का कहना है कि सत्ता भ्रष्ट करती है और पूर्ण सत्ता पूर्ण भ्रष्ट करती है। भारत की स्थिति में पूर्णतया सत्य प्रतीत होता है। 


स्वार्थ और कामना इस रोग के मूल कारण हैं। इनके अतिरिक्त अन्य कारण हैं-लोगों की आजीविका के साधनों की कमी का होना, जनसंख्या में तीव्रगति से वृद्धि होते रहना, भौतिकता एवं स्वार्थपरता की बढ़ोतरी होते रहना, सरकार की ढीली नीति का होना, फैशन का बढ़ना, शिक्षा की कमी होना, झूठी शान-शौकत बनाए रखना, महँगाई का तेजी से बढ़ना व सामाजिक कुरीतियों यथा दहेज-प्रथा, बड़े-बड़े भोज आदि का तेजी से फैलना। इस भौतिकवादी युग में मानव अधिक धन का संग्रह करने का इच्छुक रहता है।



 इसीलिए वह भ्रष्ट तरीके अपनाकर धन प्राप्त करना चाहता है। भ्रष्टाचार को बढ़ाने एवं प्रश्रय देने में राजनैतिक दलों का भी कम हाथ नहीं है। राजनैतिक दल अनेक प्रकार से विभिन्न संस्थाओं से धन प्राप्त करते हैं और उनका समर्थन करते हैं। भारत में इन कारणों से भ्रष्टाचार तेजी से बढ़ता जा रहा है।
 
 
राजनीति और भ्रष्टाचार :- आज भारत की राजनीति पूर्णतया भ्रष्ट है। राजनीतिक भ्रष्टाचार को जन्म देने में व्यापारी वर्ग का सबसे बड़ा हाथ है। वे बड़ी-बडी धनराशियाँ देकर उससे दस गना रियायतें प्राप्त करते हैं। इससे एक ओर राजनीतिक भ्रष्टाचार को बढावा मिलता है तो दूसरी ओर समाज पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है। 


इसीलिए व्यापारी वर्ग अपने लाभ के लिए मिलावट, चोरबाजारी तथा मुनाफाखोरी आदि सभी साधनों का सहारा लेता है। और सत्ता-प्रतिष्ठान इसे रोकने में कठिनाई और हिचक अनुभव करता है। इसके अतिरिक्त भारत में प्रशासनिक भ्रष्टाचार भी पूर्णतया व्याप्त है।

 प्रशासनिक भ्रष्टाचार में पुलिस सबसे अग्रणी है। परन्तु अभी जो नए तथ्य सामने आए हैं उनसे पता चलता है कि देश की सबसे बड़ी प्रशासनिक सेवा आई. ए. एस. के अधिकारी भी भ्रष्ट आचरण तथा घूसखोरी से अछूते नहीं रहे। बुराई तथा दुराचरण की आदतें ऊपर से आती हैं। 'यथा राजा तथा प्रजा' एक पुरानी कहावत है। जब नेता ही अनाचारी, दुरात्मा तथा घूसखोर होंगे तो उनके अधीनस्थ कर्मचारियों से सदाचरण की उम्मीदें कैसे की जा सकती हैं। 


बोफोर्स तोपों का मामला अभी तक ठण्डा नहीं हुआ। कहीं हवाला काण्ड, कहीं चारा काण्ड तो कहीं अपनों को चुन-चुनकर आर्थिक अनुदान देना और पुलिस बलों में केवल एक जाति के लोगों का भर्ती करना भ्रष्टाचार के उदाहरण हैं।


भ्रष्टाचार के रूप-आज भ्रष्टाचार दो रूपों में दिखाई देता है-सरकारी तन्त्र तथा व्यक्ति समुदाय के रूप में। आज मानव भौतिक सुखों के पीछे बहुत तीव्र गति से भाग रहा है। उन सुखों को पाने की चिंता में वह अच्छे-बुरे का विवेक खो बैठा है। निजी हित और लाभ प्राप्ति किस तरह से हो इसकी चिंता उसे सताती रहती है। अपनी इस चिंता को दूर करने के लिए वह नैतिकता का सहारा लेकर अनैतिकता की ओर अग्रसर होता है। जबकि यह कार्य मानव सिद्धान्तों के एक दम विपरीत है, फिर भी वह ऐसा करने को बाध्य है।


 सरकारी या गैर सरकारी, छोटे-बड़े सभी कर्मचारी अपने जीवन को अधिक सुखद एवं विलासी बनाने के लिए धन संचय में लगे रहते हैं। इसके लिए वे सभी प्रकार के अनैतिक कार्यों का सहारा लेते हैं। तब भ्रष्टाचार हमारी आत्म-लिप्सा तथा स्वार्थ-भावना के ही परिणाम हैं। अर्थात् इन्हीं से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है।


भ्रष्टाचार के परिणाम-बिना रिश्वत के फाइल एक मेज से दूसरी मेज तक नहीं पहुँचती, लाइसेंस का मिलना तो और भी कठिन है। आदमी अपनी जमीन पर अपना घर नहीं बना सकता, उसे पीने का पानी तथा विद्युत नहीं मिल सकती, जब तक सम्बन्धित क्लर्क, जूनियर इन्जीनियर के माध्यम से ऊपर तक के अधिकारियों को खुश नहीं किया जाता। इसके विपरीत रिश्वत देकर सरकारी जमीन पर भी अवैध तरीके से चार-चार मंजिल ऊँची बिलडिंगें बन जाती हैं। 


किस क्षेत्र की बात करें, शिक्षा सबसे पवित्र क्षेत्र माना गया है, परन्तु भारत में तो उसी का सबसे बुरा हाल है। । भ्रष्टाचार को दूर करने के उपाय-भ्रष्टाचार को रोकने के लिए धार्मिक, नैतिक एवं सदाचार जैसे सिद्धान्तों को अपनाया जाए। सर्वप्रथम तो हमें भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए कत-संकल्प होना चाहिए।


 भ्रष्टाचार जैसे सामाजिक रोग से बचने के लिए हमें भौतिकता के स्थान पर आध्यात्मिकता का प्रचार करना चाहिए। प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति को रोजगार दिया जाए, तो उसे जीवन-यापन करने के लिए भ्रष्ट तरीके नहीं अपनाने होंगे। राजनीतिज्ञों का दैनिक-प्रशासन में हस्तक्षेप बन्द करना होगा। जनसंख्या में कमी, भौतिकता एवं स्वार्धपरता की वृद्धि में कमी तथा सरकार की राजनीति में सख्ती लानी होगी तथा मंहगाई को खत्म करना होगा।



उपसंहार : - हमें भ्रष्टाचार रूपी दानव को शीघ्रता से कुचलना होगा। यदि हम ऐसा नहीं कर पाए तो परिणाम होगा कि हिंसक, असामाजिक व अराजक तत्व चारों ओर खुले आम अपनी मनमानी करने लगेंगे तथा स्थिति नियन्त्रण से बाहर हो जाएगी। 


अतः हमें भ्रष्टाचार से जीवन को मुक्त कराने के लिए युद्ध-स्तर पर कार्य करने की आवश्यकता है। भ्रष्टाचार रोग का एक ही निदान है-मन का नीरोग होना। मन तभी नीरोग होगा, जब हम अन्दर और बाहर से मन को भ्रष्टाचार की ओर ले जाने वाली पशु-वृत्तियों को छोड़ कर इन्द्रिय-संयम द्वारा त्यागमय जीवन का आनन्द लेंगे। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।


निबंध 3

भ्रष्टाचार पर निबंध | bhrashtachar par nibandh


एक समय था, जब हर चुनाव के पहले राजनीतिक पार्टियाँ इस देश से भ्रष्टाचार मिटा देने का वादा किया करती थीं। चुनाव संपन्न होते गए, अदल-बदल कर राजनीतिक पार्टियाँ भी सत्तारूढ़ होती गईं, किंतु भ्रष्टाचार दिनोंदिन बढ़ता ही गया।



अब राजनीतिक पार्टियों और उनके नेताओं ने भ्रष्टाचार मिटाने की बातें करना भी छोड़ दिया है। ऐसा लगता है, जैसे भ्रष्टाचार रूपी दैत्य के आगे सभी असहाय और विवश बन गए हैं।



भ्रष्टाचार का अर्थ है, दूषित आचरण या बेईमानी। आज यह बेईमानी या भ्रष्टाचार जीवन के हर क्षेत्र में व्याप्त दिखाई देता है। सरकारी कार्यालयों, बीमा कंपनियों, बैंकों, आयकर विभाग के कार्यालयों आदि में भ्रष्टाचार का खुले आम बोलबाला दिखाई देता है।



शिक्षा, खेल तथा चिकित्सा के क्षेत्रों में भी भ्रष्टाचार की काली छाया फैली हुई है। आज भ्रष्टाचार के उदाहरण सुनकर कोई नाक-भौं नहीं सिकोड़ता। एक तरह से सभी ने इसे वर्तमान जीवन-पद्धति के अनिवार्य अंग के रूप में स्वीकार कर लिया है। यह सच है कि आज भी ऐसे अनुशासनप्रिय व्यक्ति हैं, 




जो भ्रष्टाचार से कोसों दूर रहते हैं। किंतु वे भ्रष्टाचारियों का विरोध करने का साहस नहीं करते। यदि कोई इस प्रकार का दुस्साहस करता भी है, तो उसे मुँह की खानी पड़ती है।



भ्रष्टाचार वैसे तो विश्व के सभी देशों में है, किंतु हमारे देश में तो वह चरम सीमा पर पहुँच गया है। उसने देश के राष्ट्रीय जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया है। भ्रष्टाचार फैलने के अनेक कारण हैं। सबसे प्रमुख कारण है,।



हमारे देश की चुनाव-पद्धति। चुनाव में खडे होनेवाले प्रत्याशी को चुनाव जीतने के लिए पानी की तरह पैसा बहाना पड़ता है। चनाव में सफल होते ही वह खर्च की गई धनराशि किसी भी तरह से प्राप्त करने के लिए अधीर हो उठता है। उसकी यह अधीरता ही भ्रष्टाचार को जन्म देती है।




भ्रष्टाचार फैलने का एक अन्य कारण है- भौतिकवादी सभ्यता का प्रसार। आज हमारे देश में अमेरिका और पश्चिमी देशों की अंधाधुंध नकल करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इससे भोगवादी संस्कृति फैल रही है। लोग सांसारिक सुख-सुविधाओं को धर्म और सदाचार से अधिक महत्त्व देने लगे हैं। 



उनमें रातोंरात धनवान बन जाने की इच्छा जोर पकड़ रही है। चारों तरफ से धन बटोरने के लिए धोखाधड़ी, छल-कपट आदि सभी प्रकार के अनुचित उपायों का सहारा लिया जा रहा है। इस प्रकार, अपनी भौतिक समृद्धि बढ़ाने के लिए लोगों ने भ्रष्टाचार को ही शिष्टाचार मान लिया है।



भ्रष्टाचार हमारे राष्ट्रीय जीवन के लिए घोर अभिशाप बन गया है। गरीब- अमीर, शिक्षित-अशिक्षित, राजनेता-बुद्धिजीवी, सभी ने भ्रष्टाचार को जीवन का अभिन्न अंग मान लिया है। राशन कार्ड बनवाने, यात्रा के लिए आरक्षण करवाने जैसे छोटे-छोटे कामों के लिए भी रिश्वत का सहारा लेना अनिवार्य हो गया है।



शिक्षा के पवित्र क्षेत्र में भी भ्रष्टाचार ने अपने पैर पसार लिये हैं। डोनेशन दिये बिना बच्चों को किसी अच्छे स्कूल में दाखिल कराना असंभव-सा हो गया है। लोग राष्ट्रीय कर्तव्य से विमुख हो गए हैं। रातोरात धनवान बनने के लिए तस्करी करने में भी उन्हें संकोच नहीं हो रहा है। 



पैसा बटोरने के लिए नशीले पदार्थों का व्यापार धड़ल्ले से चल रहा है। लोगों ने देशभक्ति तथा कर्तव्यनिष्ठा को तिलांजलि दे दी है। लोग अपनी सामाजिक जिम्मेदारी भुला बैठे हैं। भ्रष्टाचारी व्यक्तियों को समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त हो रही है। देश को राह दिखाने का दम भरनेवाले नेतागण भ्रष्टाचार के दलदल में फँसे हुए हैं। 




कानून और व्यवस्था लागू करनेवाले लोग भ्रष्टाचारियों के हाथ के खिलौने बने हुए हैं। देश का युवावर्ग भ्रष्टाचारी व्यक्तियों की तड़क-भड़क देखकर उन्हें ही आदर्श मानकर उनका अनुकरण कर रहा है। युवकों के मन से राष्ट्रप्रेम और नैतिकता लुप्त होती जा रही है। वे भ्रष्टाचार को ही जीवन का मलमंत्र मान बैठे हैं।



यदि हम अपने इस महान राष्ट्र को दुनिया के प्रथम श्रेणी के राष्ट्रों की पंक्ति में स्थान दिलाना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें आत्म-निरीक्षण करना होगा। उसके बाद, यदि हमारे जीवन में भ्रष्टाचार का लेशमात्र भी हो, तो हमें उसे तुरंत दूर कर देना चाहिए। 



साथ ही ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह हमें ऐसी शक्ति दे कि हम अपने देश को भ्रष्टाचार रूपी भस्मासुर के पाश से मुक्त करा सकें। यदि हम दृढतापूर्वक भ्रष्टाचार निवारण का कार्य हाथ में लेंगे, तो भ्रष्टाचार के भस्मासुर को भस्म करने में अवश्य सफल होंगे। 



इसके साथ ही सरकार को भी भ्रष्टाचारियों को दंडित करना चाहिए और जनता द्वारा उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाना चाहिए। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए । और आगे दिया हुआ दूसरा निबंध पढ़ना मत भूलियेगा धन्यवाद  ।


निबंध 4


भ्रष्टाचार पर निबंध | bhrashtachar par nibandh


भ्रष्टाचार को लेकर 'नेशलन ब्राइब इंडेक्स फ्रॉम बर्थ टिल डेथ' शीर्षक के तहत दिल्ली से प्रकाशित होने वाली साप्ताहिक अंग्रेजी पत्रिका ‘आउट लुक' ने 1996 के आखिर में कुछ ऐसे हृदयविदारक तथ्य प्रस्तुत किये थे, जिनका यहाँ जिक्र करना प्रासंगिक होगा।


आउट लुक' द्वारा प्रकाशित घूस लेने वाली प्रवृत्ति का यह सूचकांक बच्चे के जन्म से शुरू होकर जवानी, बुढ़ापे से होते हुए मृत्यु तक जाता है। इस सूचकांक के अनुसार एक आम भारतीय को अपने बच्चे का जन्म प्रमाण-पत्र हासिल करने के लिए क्लर्क को 500 रुपए तक घूस देने पड़ते हैं।


जीवन भर घूस के सहारे जिन्दा रहने को मजबूर जब आम भारतीय मरता है तो श्मशान घाट पर उसके अंतिम संस्कार के लिए 200 से लेकर 500 रुपए तक रकम घूस के रूप देनी पड़ती है।



मूंदड़ा कांड को छोड़ दिया जाए तो पं० नेहरू के जमाने में ऐसे लगभग चार मामले प्रकाश में आए थे। 1949 में 216 करोड़ रुपए का जीप घोटाला ऐसा पहला मामला था,



जिसमें ब्रिटेन स्थित तत्कालीन उच्चायुक्त कृष्ण मेनन का नाम उछला था। दूसरा मामला 1956 का शिराजुद्दीन प्रकरण था, जिसमें नेहरू मंत्रिमंडल के तत्कालीन खान एवं ऊर्जा मंत्री के०डी० मालवीय पर गम्भीर आरोप लगे थे। तीसरा प्रकरण जहाजरानी उद्योगपति धरमतेजा का था, जिन्हें 1960 में पं० नेहरू ने बिना किसी जाँच-पड़ताल के 20 करोड़ रुपए के ऋण दिवलाये थे। यह प्रकरण 1985 तक चलता रहा जब तक कि धरमतेजा की मृत्यु नहीं हो गई।


श्रीमती इंदिरा गाँधी के आने के बाद 1971 में नागरवाला काण्ड हुआ जो आज तक रहस्य बना हुआ है। कहा जाता है कि भारतीय खुफिया विभाग के लिए काम कर चुके नागरवाला ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के लिए स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के मुख्य कैशियर वेद प्रकाश मल्होत्रा से 60 लाख रुपये लिए थे।



नागरवाला गिरफ्तार हुआ और जेल में ही उसकी मृत्यु हो गई। कुछ ही दिनों बाद इस पूरे मामले की जाँच कर रहा पुलिस अधिकारी भी एक कार दुर्घटना में मार दिया गया।



1987 के बोफोर्स प्रकरण ने भ्रष्टाचार की एक बिल्कुल भिन्न तस्वीर प्रस्तुत की। दरअसल, संजय गाँधी ने जिस 'कटसिस्टम' यानि सौदों में कमीशन की अवधारणा प्रस्तुत की थी, उनका पहला उदाहरण था बोफोर्स कमीशनखोरी। वैसे पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर के अनुसार, यह कोई नया मामला नहीं है। 



आजादी के बाद से ही घोषित तौर पर हर सौदे में हमारे यहाँ कमीशनखोरी की प्रथा कायम रही है। जो भी हो इसकी जानकारी न तो संसद को दी जाती है और न ही आम मतदाता को, जिसे लोकतंत्र का भाग्यविधाता माना जाता है।



बहरहाल राजीव गाँधी ने जब यह कहा कि विकास कार्यों के मद में खर्च होने वाली धनराशि का मात्र दस फीसदी हिस्सा ही नीचे तक पहुँच पाता है और 90% हिस्सा बिचौलिए हड़प लेते हैं, तब लोगों को भ्रष्टाचार की व्यापकता और भ्रष्टाचारी का अंदाजा लगा। 



शेयर घोटाला, चीनी घोटाला, टेलीकॉम घोटाला, चारा घोटाला, हवाला और आवास घोटाला, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड, यूरिया घोटाला न जाने कितने घोटाले हुए और हो रहे हैं और जो सत्ता में है, उसका भ्रष्ट होना जन्मसिद्ध अधिकार है।



एक जमाना था जब विपक्ष को कुछ-कुछ शास्त्री जी जैसा ही अपेक्षाकृत ईमानदार माना जाता था। जैसे-जैसे भारतीय राजनीति में कांग्रेस नाम की एक पार्टी का वर्चस्व समाप्त होता गया, वैसे-वैसे भ्रष्टाचार का भी विकेन्द्रीकरण हुआ। 



हमारा लोकतंत्र एक-दूसरे पर अंकुश रखकर सबको सही रखने और संतुलित करने के बजाय एक-दूसरे को भ्रष्ट करने और फिर भ्रष्टाचार में समान भागीदारी दिलाने का तंत्र हो गया।



विपक्ष भी जब वही करने लगा हो, जो सत्तापक्ष के लोग करते हैं तो कहने की जरूरत नहीं कि वे एक-दूसरे के भ्रष्टाचार को दबाकर नहीं तो कम-से-कम ढककर जरूर रखने लगे। 



भंडाफोड़ का डर जितना सत्तापक्ष को है लगभग उतना ही उसका विरोध करने वाले विपक्ष को था। इसलिए जो भी घोटाला उजागर होता है, उसकी सभी परतें खोलने, सीवन उधेड़ने और तह तक पहुँचकर अपराधियों के दंड देने तक नहीं ले जाया जाता है।




इस बंदरबांट में हर उस व्यक्ति को कुछ-न-कुछ मिल जाता है, जिसके पास कोई-न-कोई सत्ता है, चाहे वह विपक्ष की ही सत्ता क्यों न हो। मारा जाता है वह साधारण नागरिक जिसे हमारा लोकतंत्र अपना मालिक बताता है। 



हाशिए पर खड़ा यह आम नागरिक चुपचाप सब कछ देखते रहने के लिए अभिशप्त है। सच कहा जाए तो भ्रष्टाचार पर अंकुश तभी लग सकता है, जब सत्ता पर जनता का सीधा नियंत्रण कायम हो। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।