ब्रह्मचर्य पर हिंदी निबंध। Brahmacharya par Nibandh
नमस्कार दोस्तों आज हम ब्रह्मचर्य इस विषय पर निबंध जानेंगे।भमिका-विधाता ने जड़-चेतन सभी प्रकार के पदार्थों की रचना की है, इनमें से मानव विधाता की सर्वोत्तम रचना है। इसीलिए गोस्वामी जी ने कहा है 'सबसे दुर्लभ मनुज शरीर ।' इसका अर्थ यह है कि जीवों का जन्म अपने कर्मों का फल भोगने के लिए होता है-और मानवजन्म कर्म करने तथा कर्म-फल भोगने के लिए होता है।
मानव में विवेक रहता है जिसके सहारे, वह उचित-अनुचित, लाभ-हानि आदि का विचार करके कार्य करता है। प्राचीन काल में भारतीय समाज ने मनुष्यों की पूरी आयु को चार भागों में बाँट दिया था, वही चार आश्रम कह जाते थे। ये थे- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास ।
जन्म से 25 वर्ष तक की अवस्था को ब्रह्मचर्य आश्रम कहते हैं। इस अवस्था में लोग गुरुओं के पास रहकर विद्या-अध्ययन किया करते थे इसके बाद विवाह करके सामाजिक गृहस्थ का जीवन व्यतीत करते थे। परिवार के साथ रहकर धार्मिक कार्यों की ओर ध्यान दिया जाता था।
इस प्रकार धीरे-धीरे सांसारिक बन्धन को छोड़ने का उपाय करते थे। इसके बाद जीवन के चौथे चरण में संसार की मोह-माया छोड़कर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का सिद्धान्त अपनाकर हरिचरणों में लोक-कल्याण तथा परोपकार में लग जाते थे तथा अन्त में शान्ति लाभ करते थे।
इस प्रकार जीवन के प्रथम भाग को ब्रह्मचर्याश्रम कहते थे और इसका जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान था और अब भी है। ब्रह्मचर्य का अर्थ संयम, नियम तथा सदाचारपूर्वक शान्त बुद्धि से उसकी रक्षा करना है।ब्रह्मचर्याश्रम में लोग विभिन्न प्रकार के ज्ञान प्राप्त करते थे और उस ज्ञान को व्यवहार में लाकर अपने गृहस्थ जीवन को सुखमय बनाने का प्रयत्न करते थे।
आज भी यह व्यवस्था कुछ नये परिवर्तन के साथ चल रही है। ब्रह्मचर्य जीवन में छात्र अपने गुरुओं के पास रहकर सांसारिक कार्यक्रमों के सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्त करते थे, उनका मन स्थिरता से लगा रहता था। इससे जब वे इस अवस्था को समाप्त कर विवाह करके सांसारिक बन जाते थे, वे धनोपार्जन करते थे तथा गृहस्थ धर्म का निर्वाह करते थे।
इस प्रकार उनका जीवन एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लेता था। समय के अनुसार परिस्थितियों में परिवर्तन आने लगता है। गुरुकुल धीरे-धीरे खत्म होते गये। इसके बाद यवनों का शासन-काल आया था। उस समय कम अवस्था में ही लड़के-लड़कियों की शादी की जाने लगी और ब्रह्मचर्य के जीवन से अपरिचित रह जाते थे।
फिर भी पठन-पाठन के लिए उन्हें घर छोड़कर बाहर जाना पड़ता था। कभी-कभी कुछ लोगों की मानसिक चंचलता उनके कार्यों में रुकावटें लाती है। बाद में ‘एकाहारी सदाव्रती, एक नारी सदा ब्रह्मचारी' का सिद्धान्त चला।आज भी यह सिद्धान्त माना जाता है। आज नियमपूर्वक जीवन के प्रथम चरण को बिताना ही ब्रह्मचर्य कहा जाता है।
ब्रह्मचर्य क्या है?-ब्रह्मचर्य शब्द अपने व्यापक अर्थ में जिस भावना को व्यक्त करता है वह भावना मनुष्य की मानसिक शान्ति के लिये आवश्यक है। इसका अर्थ यौन सम्बन्ध को यथासम्भव सीमित और नियमित रखना है।
मनुष्य के शरीर का मुख्यतम तत्व शुक्र होता है और इसी के सहारे शरीर के बल प्राप्त करते हैं, अतः इसकी रक्षा अत्यन्त आवश्यक है। इसकी रक्षा यदि समुचित रूप से नहीं होती तो मनुष्य की शक्तियाँ घट जाती हैं। वह अपने काम को सुचारु रूप से नहीं कर पाता।
लगभग 20-25 वर्ष की आयु में मनुष्य की एक विशेष अवस्था आती है जिससे मनुष्य में प्रौढ़ता आती है और उसमें सन्तानोत्पत्ति की शक्ति आ जाती है। इसके बाद जब सांसारिक जीवन में प्रवेश करता है तो उसकी मानसिक शक्ति में दृढ़ता आ जाती है और वह नियमित रूप से जीवन व्यतीत कर सकता है।
कहा गया है-“ब्रह्मचर्य तपसा देव मृत्युमुपाध्नत" अर्थात् ब्रह्मचर्य द्वारा मत्य पर भी विजय पायी जा सकती है। आजीवन ब्रह्मचारी भीष्म पितामह ने मौत की इच्छानसार नहीं, बल्कि अपनी इच्छा से प्राण छोड़ा था। ब्रह्मचर्य द्वारा ही यह सम्भव हो सका था।
ब्रह्मचर्य-पालन के लाभ-ब्रह्मचर्य के अभाव में लोगों की स्मरण-शक्ति कम हो जाती है, जिससे दैनिक जीवन में अनेक कठिनाइयाँ आती रहती हैं। इसके अभाव में मनुष्य में अनेक प्रकार के विचार उत्पन्न हो जाते हैं। जिससे मनुष्य जीवन का लक्ष्य नहीं हो पाता है।
शरीर में आलस्य का भाव बना रहता है, जिससे किसी भी कार्य में मन नहीं लगता। ब्रह्मचर्य के अभाव में अध्ययन का कार्य सुचारु रूप से नहीं हो पाता। ज्ञान के अभाव में मनुष्य को गृहस्थ जीवन में सफलता प्राप्त नहीं होती, अतः सुख और शान्ति, आकाश कुसुम बनकर रह जाते हैं।
जिस व्यक्ति में ब्रह्मचर्य का अभाव रहता है, उसको सामाजिक प्रतिष्ठा भी नहीं मिल पाती है। इसका परिणाम यह होता है कि ऐसे मनुष्य पूरे जीवन को अपमान और निन्दा में ही व्यतीत करते हैं। ब्रह्मचर्य जीवन के बिगड़ जाने पर जीवन का स्तर बिगड़ जाता है और उन्नति में बाधा उत्पन्न हो जाती है।
इसके अभाव के कारण मनुष्य चिन्ता में लग जाता है और न ही उसे आत्मज्ञान प्राप्त होता है, अतः उसका जीवन निरन्तर गिरता जाता है। ब्रह्मचर्य की आवश्यकता जीवन की हर व्यवस्था में रहती है। वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम में ब्रह्मचर्य का महत्व और भी बढ़ जाता है।
क्योंकि ये ऐसे जीवन-क्रम होते हैं जिससे मनुष्य अपने ज्ञान-बल के सांसारिक मायाजाल को छोड़ने का अभ्यास करता है। इसके लिए अनेक प्रकार के नियम और संयम की आवश्यकता होती है। वे संयम-नियम ब्रह्मचर्य के अभाव में सम्भव नहीं होते।
ब्रह्मचर्य का लाभ सामाजिक तथा व्यक्तिगत दोनों दृष्टियों से है। ब्रह्मचर्य एक ऐसा गुण है जो समाज में आचार नहीं बढ़ने देता, इसका पालन करने से मनुष्य में आत्मबल बढ़ता है और वह मनस्वी बनता है। यह मनुष्य के व्यक्तित्व को ऊँचा उठाता है।
इस प्रकार जिस समाज में ब्रह्मचर्य का जितना ही अधिक महत्व माना जाता है वह समाज उतना ही उन्नत बनता है। मनुष्य को पशु की तरह बनने से रोकने वाला ब्रह्मचर्य ही है। जीवन का सर्वोत्तम तप ब्रह्मचर्य है “न तपस्तते इत्याहुः ब्रह्मचर्य तपोत्तमम्” यह आवश्यक रूप से पवित्र है।
ब्रह्मचर्य का जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। मनुष्य में दया, करूणा, सहानुभूति, वीरता, प्रेम, स्वाभिमान आदि जितने भी गुण हैं सबका विकास ब्रह्मचर्य की छाया में ही होता है। इन मानवीय गुणों की शक्ति ब्रह्मचर्य में है। सांसरिक दृष्टि से ब्रह्मचर्य का महत्व प्रत्येक व्यक्ति के लिये है।
चूंकि व्यक्तियों से ही समाज बनता है अतः समाज के लिये भी इसका महत्वपूर्ण स्थान हो जाता है। आध्यात्मिक जीवन में ईश्वर-प्रेम, दार्शनिक, चिन्तन, माया जगत के विचार आदि का विशेष महत्व होता है। इन विषयों पर एकाधिकार के लिए ब्रह्मचर्य की अत्यन्त आवश्यकता है।
उपसंहार-मनुष्य का जीवन सांसारिक आकर्षणों के मायाजाल में बराबर फंसा रहता है। मनुष्य की आत्मशक्ति का आधार विवेक का विकास है। आत्मशक्ति का मूल स्रोत है ब्रह्मचर्य। इसी ब्रह्मचर्य के सहारे मनुष्य अपनी मानवीय शक्तियों का विकास करके जीवन के चरम लक्ष्य तक पहुँचने का प्रयत्न करता है। ब्रह्मचर्य-पालन से देश शक्तिशाली बनेगा। इस प्रकार मानव-जीवन में ब्रह्मचर्य का स्थान महत्वपूर्ण है। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।