सिनेमा पर हिंदी निबंध | Essay on Cinema in Hindi
नमस्कार दोस्तों आज हम सिनेमा इस विषय पर निबंध जानेंगे। प्रस्तावना-सिनेमा के आविष्कारक जॉहन आगरूट एवं लुई लुमियर दोनों भाइयों ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनका यह अनोखा आविष्कार भविष्य में मनोरंजन के साथ साथ सामाजिक सुधार एवं मानवीय विकास का सशक्त माध्यम बन जायेगा। सिनेमा का आविष्कार आगस्ट एवं लुई दोनों भाइयों ने किया था। ये दोनों फ्रांसीसी थे।
(1) सिनेमा समाज का दर्पण-समाज और सिनेमा दोनों अलग-अलग घटक हैं, परन्तु फिर भी ये एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। क्योंकि सिनेमा में दिखाये गये रूप समाज के ऊपर आधारित होते हैं। समाज में आ रहे परिवर्तन को सिनेमा दर्शाता है कि समाज में क्या हो रहा है और आगे क्या-क्या होने की सम्भावना बन सकती है?
सिनेमा देखने का एवं साथ ही सुनने का एक ऐसा माध्यम या चमत्कार है जिसके द्वारा हमें भावना, चेतना परम्पराओं, धर्म एवं सैक्स के बारे में पता चलता रहता है। सिनेमा अच्छाइयों एवं बुराइयों के शोषण की क्षमता भी रखता है।
साधारण फिल्मों में यह क्षमता कलात्मक तथा सार्थक रूप में पायी जाती है जबकि व्यावसायिक फिल्मों में यह क्षमता अपने विकृत एवं नकारात्मक रूप में विद्यमान रहती है। वास्तविक तौर पर सिनेमा एक ऐसी विधा है जो दर्शक को तीन घंटों तक अंधेरे में डुबाकर अपने से जोड़े रहती है।
चारों तरफ दर्शकों के भीड़ होने के बावजूद वह उस भीड़ में अकेला ही रहता है। भीड़ में भी दर्शक का मन पूरी तरह से नायक से जुड़ जाता है और सिनेमा से प्रभावित हुये बिना नहीं रहता है। सिनेमा ने भारत के ही नहीं विश्व के दर्शकों पर भी ऐसा जादू किया है कि इसके लिये भाषायी एवं भौगोलिक सीमाएँ स्वतः समाप्त हो गयी हैं।
मनोरंजन के उद्देश्य से बने किसी भी अन्य माध्यम से इतने बड़े पैमाने पर सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन होते नहीं देखे गये। सन् 1921 में काँजी भाई गुजराती द्वारा बनाई गई फिल्म 'भक्त विदुर' में डी० सम्पत ने गांधी टोपी पहनकर भक्त विदुर की भूमिका निभाई थी।
उनकी इस फिल्म में सन् 1918 में कैरा जिले में ग्रामवासियों द्वारा कर न देने और छिरांबा कस्बा अंग्रेजों द्वारा खाली कराये जाने की घटना का दृश्य था। फिल्म को जनता ने खूब सराहा। जहाँ भी यह फिल्म प्रदर्शित की गई वहाँ ब्रिटिश पुलिस का विरोध हुआ तथा इस फिल्म पर रोक लगा दी गयी।
इन्हीं दिनों पश्चिमी संस्कृति, मिल मालिक और मजदूर जमींदार एवं शोषित कृषक, बाल विवाह, विधवा विवाह, दहेज, शराब आदि विषयों पर बनी फिल्मों ने समाज को इन विषयों पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया। सिनेमा कब, क्यों और कैसे मानव मन को प्रभावित करता है? कभी-कभी अच्छे और सामाजिक विषयों पर बनी फिल्में समाज में दिशा नहीं दे पाती हैं।
वह पूरी तरह व्यावसायिक स्तर पर मात्र धन कमाने के लोभ में चालू फिल्में मानव मन पर असर छोड़ जाती हैं। सर्वेक्षण से प्राप्त निष्कर्ष मुख्यतः ऊपरी प्रभावों, जैसे-रहन-सहन का तरीका, चलने, बोलने का तरीका एवं सामाजिक आदतों पर आधारित रहती हैं।
एक श्रेष्ठ और स्तरीय सिनेमा के दर्शक आचरण में एक सभ्यता और सन्तुलन देखने को मिलेगा। जबकि हिंसा से परिपूर्ण फिल्म में दर्शक के आचरण में असभ्यता एवं हिंसा देखने को मिलेगी। एक प्रकार से सिनेमा का असर मानव-मन पर सीधा पड़ता है तो दूसरे प्रकार से उल्टा भी पड़ता है।
(2) सिनेमा और समाज का सच्चा स्वरूप आजकल के समाज को वास्तव में सिनेमा के माध्यम से ही दर्शाया जाता है। इसमें सन्देह की भी कोई बात नहीं है कि सिनेमा और समाज एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, चाहे वह समाज में बढ़ती हिंसा की हो, अंग्रेजों की हो या किसी की प्रेम कहानी हो।
स्वतन्त्रता के पश्चात् भारतीय समाज ने चैन की साँस ली। भारतीय सिनेमा पर अंग्रेजी शासन समाप्त होने पर गहरा असर पड़ा फिर सिनेमा ने प्रेम कहानी की फिल्में एवं सामाजिक फिल्में बनानी प्रारम्भ कर दीं। इन फिल्मों में मन लुभावने गीत, दृश्य एवं संगीत भी होते थे, किन्तु सत्तर के दशक में हिंसा और सैक्सी फिल्मों का प्रचलन हुआ जो आज तक चलता आ रहा है।
इन फिल्मों में नायक महानायक की भाँति उभरता है। आज का नायक भी पहले नायक की भाँति अपने आन्तरिक गुणों से नायिका का दिल नहीं जीतता, बल्कि अपने चरित्र की नकारात्मकता के कारण नायिका के दिल में जगह बना लेता है।
(3) सिनेमा के गुण एवं दोष-सिनेमा ने पूरे विश्व में एक नई क्रान्ति ला दी है आजकल के युवा हों, वृद्ध हों या बच्चे हों सभी सिनेमा देखने को काफी उत्सुक रहते हैं। सिनेमा ने हर एक वर्ग को सोचने एवं विचार विमर्श करने हेतु बाह्य बनाया। जितना ज्ञान मानव को सिनेमा देखने से मिलता है इतना ज्ञान उसे किसी माध्यम या शिक्षा से नहीं मिल सकता।
सिनेमा का मुख्य गुण यह रहा है कि सिनेमा देखने से मनुष्य को सामाजिक गतिशीलता, मेल-जोल तथा एकता का भाव पता चला, अन्य क्षेत्रों में भी लोग भाषा एवं बोलने के लहजे से काफी परिचित हो चुके हैं, हिन्दी फिल्मों की कहानी अधिकतर हमें आजकल के सामाजिक स्तर का ज्ञान कराती है
वहीं दूसरी ओर सिनेमा का एक गहरा दोष भी है सिनेमाघरों में अंग्रेजी फिल्में चलाई जाती हैं और उनका प्रचार विज्ञापन-पोस्टरों द्वारा खुलेआम किया जाता है जो कि अश्लीलता का द्योतक है इसी तरह आजकल हिन्दी फिल्में अगर हम अपने टी०वी० पर देख रहे हों तो एक-न-एक दृश्य ऐसा फिल्म में अवश्य होता है जिसे देखकर हमें अपनी आँखें शर्म से झुकानी पड़ जाती हैं।
घर में माता बैठी हो, भाई बैठा हो या बहन बैठी हो हमें टी०वी० सैट के सामने से उठ जाना पड़ता है। यह एक शर्मनाक बात है। उपसंहार-सिनेमा आने से मानव को देश-विदेश में बढ़ती हिंसा के बारे में ज्ञान मिलता है। एक जगह बैठे हुये तीन घंटे में हम पूरी घटना का चित्रण अपने दिमाग में उतार लेते हैं, सिनेमा से मनोरंजन होता है।
समाज का हाल मालूम होता है एवं मनोरंजन होने के साथ-साथ सिनेमा से समाज में अश्लीलता भी बढ़ती जा रही है। एवं साथ में हिंसा ने भी भयानक रूप धारण कर लिया है-यह सब नहीं देना चाहिये। गंदी फिल्मों पर सरकार को प्रतिबन्ध लगा देना चाहिये, क्योंकि सिनेमा मनोरंजन का साधन है न कि अश्लीलता एवं हिंसा बढ़ाने का।दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।