चुनाव सुधार पर हिंदी निबंध | Essay on Election Reformation in Hindi
नमस्कार दोस्तों आज हम चुनाव सुधार पर इस विषय पर निबंध जानेंगे। सत्तापक्ष और विपक्ष की सामूहिक कृपा से भी सभी व्यक्ति चुनाव लड़ने के लिए स्वतंत्र हो गये हैं, जिन पर हत्या, लूट, अपहरण, बलात्कार इत्यदि के मुकदमे चल रहे हैं। ऐसा इसलिये हुआ है क्योंकि राष्ट्रपति को न चाहते हुए भी उस अध्यादेश पर हस्ताक्षर करने पड़े जिसे चुनाव सुधार का नाम दिया गया है।
तथाकथित चुनाव सुधार के नाम का यह अध्यादेश आ जाने के बाद अब यह स्पष्ट हो गया है कि किसी व्यक्ति का चुनाव लड़ने के लिये अपनी सम्पत्ति, आय के स्रोत या शैक्षिक योग्यता को सार्वजनिक नहीं करना पड़ेगा। इसके अलावा अब किसी उम्मीदवार को यह भी बताने की जरूरत नहीं है कि उसके खिलाफ कोई आपराधिक मामला विचाराधीन है कि नहीं।
हालांकि राष्ट्रपति ने इस चुनाव सुधार अध्यादेश में निहित कुछ प्रावधानों के बारे में सरकार का स्पष्टीकरण मांगा था लेकिन उसने ऐसा न करके मूल अध्यादेश को राष्ट्रपति के पास पुनः भेज दिया जिसके पीछे यह तर्क दिया गया कि सर्व सम्मति से लिये गये निर्णय पर स्पष्टीकरण की कोई आवश्यकता नहीं है।
राष्ट्रपति द्वारा जिन मुद्दों पर सरकार से स्पष्टीकरण मांगा गया था उनमें एक मुद्दा गम्भीर आरोपों में आरोपित किसी व्यक्ति को चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराने की बात थी। राष्ट्रपति के इन प्रश्नों पर सरकार ने यह आश्वासन दिया है कि अध्यादेश पर संसद में बहस के समय इन पर विचार किया जा सकता है। लेकिन जिस तरीक से इस अध्यादेश पर सभी दलों की स्वीकृति है, उससे ऐसा नहीं लगता है कि संसद में इस पर कोई सार्थक बहस हो सकती है।
आजकल किसी भी राजनीतिक दल में राजनीति के अपराधीकरण को रोक पाने की इच्छाशक्ति नहीं है। फिर भी देश की जनता को गुमराह करने की कुछ राजनीतिक दल इस अध्यादेश की आलोचना कर रहे हैं। लेकिन उनकी यह आलोचना एक दिखावा एवं ढोंग ही है। भारतीय राजनीति के सारे चेहरे ध्वनिमत से अदालत और चुनाव आयोग के खिलाफ खड़े हो गये।
उच्चतम न्यायालय के कहने पर चुनाव आयोग ने चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों से नामांकन पत्र दाखिल करते समय पाँच अतिरिक्त जानकारियाँ मांगने और उन जानकारियों को सार्वजनिक करने का आदेश दिया था।
इनसे पहली जानकारी यह थी कि यदि प्रत्याशी को अतीत में किसी आपराधिक मामले में सजा हुई हो तो उसे उसका पूरा ब्यौरा देना था। उसे यह बताना था कि कब किस मामले में उसे कितने दिनों की किस अदालत से जेल हुई थी और वह कब छूटा था? कारावास के बजाय अर्थदण्ड की सूचना भी उसे सार्वजनिक करनी थी।
दूसरी जानकारी के मुताबिक पर्चा भरने के 6 महीने पूर्व किसी मामले में यदि प्रत्याशी के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल हुआ था और सजा नहीं हुई थी, मगर मामला अदालत में लम्बित था, तो उसका भी विवरण देना था। लेकिन ऐसा विवरण केवल उन्हीं मामलों में देने की बात कही गयी थी जिनमें दो वर्ष या उससे अधिक कारावास की सजा का प्रावधान हो।
चुनाव आयोग ने तीसरी जानकारी यह माँगी थी कि हर प्रत्याशी को अपने समेत अपनी पत्नी/पति तथा आश्रितों की चल-अचल सम्पत्ति का पूर्ण विवरण देना चाहिये। चौथी जानकारी के अन्तर्गत प्रत्येक प्रत्याशी को बैंक या वित्तीय संस्थाओं से लिये गये ऋण के साथ-साथ अपने ऊपर किसी भी तरह के सरकारी धन के बकाए का विवरण देना था।
जिसमें सभी तरह के बकाया करों का उल्लेख करने के साथ-साथ पैन नम्बर देना भी अनिवार्य था। पाँचवीं और अंतिम जानकारी चुनाव आयोग ने यह मांगी थी कि चुनाव लड़ने वाला प्रत्याशी ने किस स्कूल-कॉलेज और विश्वविद्यालय से कौन-सी परीक्षा कब पास की; अर्थात् उसको अपनी शौक्षिक योग्यता का विवरण देना था।
उच्चतम न्यायालय ने चुनाव सुधार के बारे में ये दिशा निर्देश अचानक नहीं दिये हैं। इससे पहले भी वह अपनी कई निर्णयों में चुनाव सुधार से सम्बन्धित टिप्पणियाँ कर चुका है। 1978 में गिल मामले में न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने चुनाव प्रक्रिया के खराब होने की बात कही थी।
1984 में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन तथा 1985 में चुनाव चिन्ह दिए जाने के मामले में और 1996 में कॉमन कॉज मामले में उच्चतम न्यायालय ने चुनाव प्रक्रिया के बारे में टिप्पणी की थी। 1997 में वोहरा कमेटी की रिपोर्ट में भी अपराधियों राजनेताओं तथा नौकरशाहों के बीच गठजोड़ पर टिप्पणी की गयी थी।
भारत में निष्पक्ष चुनाव कराने तथा चुनाव सम्बन्धी अपराधों को रोकने के लिये कई तरह के प्रावधान हैं। भारतीय संविधान के भाग-15 के अनुच्छेद 324 से 329 तक में चुनाव प्रक्रिया से सम्बधित कई प्रावधान दिए गए हैं। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 171 (क) से (झ) में फर्जी मतदान, चुनावों में प्रभावों का दुरुपयोग, चुनाव की निष्पक्षता पर प्रभाव डालने वाले कार्य, चुनाव व्यय में हेराफेरी इत्यादि को दण्डनीय अपराध घोषित किया गया है।
इन संस्तुतियों और टिप्पणियों के आधार पर भारत में अब तक कई चुनाव सुधार किए जा चुके हैं; जैसे-(i) संविधान के 61वें संशोधन द्वारा मतदाता की न्यूनतम आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर देना। (ii) लोकसभा एवं विधान सभा में खड़े होने वाले उम्मीदवारों के लिए जमानत की राशि क्रमशः 500 रुपये तथा 200 रुपये से बढ़ाकर 10 हजार रुपये तथा दो हजार रुपये कर देना।
अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिये यह क्रमश: 250 रुपये तथा 125 रुपये से बढ़ाकर 5 हजार तथा 2.5 रुपये कर दी गयी है। (iii) नाम वापस लेने और मतदान की तिथि के बीच न्यूनतम अवधि 20 दिन के स्थान पर 14 दिन कर देना। (vi) किसी भी उम्मीदवार के आम चुनाव अथवा उसके साथ-साथ होने वाले उपचुनाव में दो से अधिक संसदीय अथवा विधान सभा क्षेत्रों से चुनाव लड़ने पर प्रतिबन्ध लगा देना।
v) मतदान के दिन और उससे पूर्व मतदान सम्पन्न होने तक 48 घंटे की अवधि के लिये शराब की बिक्री पर रोक है। चुनाव से सम्बन्धित इतने सारे उपाय होने के बावजूद भी अभी तक कोई भी चुनाव सही एवं निष्पक्ष सम्पन्न हुआ नहीं कहा जा सकता है। देश भर में निर्वाचन से सम्बन्धित जो तथ्य और आंकड़े उपलब्ध हैं उनसे पता चलता है कि निर्वाचित विधायकों में लगभग 70% डाले गए मतों के अल्पमत से चुनकर आते हैं;
अर्थात् उनमें से प्रत्येक पक्ष में पड़े हुए मत कम होते हैं और विरोध में अधिक, ऐसे में उनको जनता का प्रतिनिधि कैसे कहा जा सकता है! किसी भी उम्मीदवार को निर्वाचित घोषित होने के लिए कम से कम 50% + 1 मत मिले। अगर किसी को इतने मत न मिलें तो जिन दो उम्मीदवारों को सबसे अधिक मत मिले हों उनके बीच अगले दिन पुनः मतदान होना चाहिए।
अगर इस एक सुझाव को लागू कर दिया जाए तो कई समस्याओं का समाधान हो जायेगा। धीरे-धीरे उम्मीदवारों की संख्या में कमी आयेगी और केवल गम्भीर उम्मीदवार ही मैदान में आयेंगे, इसका एक फायदा यह भी होगा कि निर्वाचन से पूर्व दलों में आपस में गठबंधन और समझौते हो जायेंगे और यह भी हो सकता है दो या तीन प्रमुख दलों के बीच ही अधिकतर चुनाव होने लगें।
इन सबका परिणाम यह होगा कि राजनीति में स्वस्थ उदारीकरण और सरकारी तंत्र में स्थायित्व आयेगा। सम्भवतः 1-2 चुनावों के बाद दोबारा मतदान के अवसर बहुत कम आयें और पहली बार में ही 50% से अधिक मत पाकर विधायक बनने लगें।
गत कुछ निर्वाचनों के आंकड़ों के अध्ययन के बाद यह तथ्य भी सामने आया है कि जितने भी निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव में खड़े होते हैं, उनमें से अधिकांश डमी या नकली होते हैं और चुनाव प्रक्रिया को दूषित करते हैं। 1998 के आम चुनाव में 1900 निर्दलीय प्रत्याशी बनने का अधिकार हो, जो पहले कोई स्थानीय चुनाव जीत चुका हो और जिसे कम-से-कम 20 स्थानीय निर्वाचित पंचायत या नगरपालिका सदस्य नामांकित करे।
निर्वाचनों पर होने वाले भयावह व्यय को कम करने के लिए जहाँ तक सम्भव हो, लोकसभा और राज्यसभा की विधान सभाओं के लिये निर्वाचन एक साथ हों। आचार संहिता को विधि का रूप दिया जाना चाहिए तथा उसका उल्लंघन दण्डनीय अपराध घोषित किया जाए।
चुनाव सुधारों से सम्बन्धित इन सारी प्रक्रियाओं के लिए किसी संविधान संशोधन की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि यदि विधान पालिका अपने दायित्वों का निर्वहन करने में असमर्थ हो तो लोकतंत्र में जनमत का दबाव इतना प्रभावी हो कि वह आवश्यक कदम उठाने के लिए विवश हो जाए।
इधर पिछले कुछ चुनावों से त्रिशंकु सदनों का प्रादुर्भाव हुआ है जिसके पीछे मुख्य कारण निर्वाचन व्यवस्था ही है। अतः निर्वाचन व्यवस्था में सुधार करने का कोई भी प्रयास तब तक सफल नहीं हो सकता है जब तक राजनीतिक दल व्यवस्था में भी आवश्यक सुधार न हो। इस समस्या को दूर करने के लिये राजनीतिक दलों के नियमन के लिए एक व्यापक कानून बनाया जा सकता है,
जिसके अन्तर्गत राजनीतिक दलों के पंजीकरण, मान्यता, आन्तरिक लोकतंत्र गठबंधन आदि के नियम हों। संविधान की 10वीं अनुसूची में दल-बदल निरोधक कानून दल-बदल को रोकने के बजाय उसे और व्यापक तथा वैध बनाने में सहायक रहा है। इस कानून के अन्तर्गत समूहों में किया गया दल-बदल ध माना जाता है।
प्रायः दल-बदल के पीछे मंत्रीपद या अन्य राजनीतिक पद और विशाल धनराशि जादि का प्रलोभन रहता है। दल-बदल वाले किसी व्यक्ति को कोई मंत्रीपद अथवा अन्य पद तब तक प्राप्त नहीं होना चाहिए, जब तक वह पुनः निर्वाचन के द्वारा जनादेश जीतकर न आये।
निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि लम्बे समय से न्यायालय चुनाव आयोग द्वारा देश की जिम्मेदार-ईमानदार संस्थाओं के अनुरोध पर अब अगर हमारी सरकार और नेता चुनाव सुधारों पर कानून बना रहे हैं तो यह स्वागत योग्य है।
इसे आगे बढ़ाकर एक कदम माना जाना चाहिए। अगर इस अध्ययादेश में चुनाव सुधार के अन्य जरूरी प्रावधानों को शामिल किया गया होता तो बेहतर होता। अपना समाज तो ऐसा ही है जो 'लक्ष्मी' की पूजा करता है। लेकिन पैसे के बल पर सत्ता की धौंस दिखाने वाले को वह नकारता भी है।
पता नहीं क्यों सरकार और नेता अपनी सम्पत्ति को सार्वजनिक करने से हिचक रहे हैं। अदालत और आयोग के दबाव के बजाय अगर सरकार स्वयं पहल कर यह अध्यादेश लायी होती तो उसे कोई सन्देह की दृष्टि से नहीं देखता। ऐसा नहीं हुआ इसलिए तमाम आशंकाएँ लोगों के मन में हैं। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।