निरक्षरता एक अभिशाप पर निबंध | ESSAY ON ILLITERACY IN HINDI
नमस्कार दोस्तों आज हम निरक्षरता एक अभिशाप इस विषय पर निबंध जानेंगे। गोस्वामी तुलसीदान ने लिखा है। “सब ते भले विमूढ़ जन, जिन्हें न न व्यापै जगत गति।"अर्थात् सबसे अच्छे मूर्ख होते हैं जिन्हें जगत की गति नहीं व्याप्ती । जगत को जिस ओर जाना हो जाये मूल् को इससे क्या पड़ी है और वह आराम से अपनी जिन्दगी काट देता है जबकि समझदार और साक्षर बुद्धिमान व्यक्ति के लिये पग-पग पर ठोकरें हैं, उलझनें हैं, चिंतायें हैं।
जैसे-जैसे मानव का विकास हुआ साक्षरता की अहम भूमिका दुनिया भर में स्वीकार की जाने लगी है। इस दृष्टि से विचार करने पर पता चलता है कि साक्षरता के क्षेत्र में भारत को अभी बहुत कुछ करना बाकी है। भारतीय जनगणना 2001 के आंकड़े बताते हैं कि अब देश में 65.38% लोग साक्षर हैं। एक दशक के दौरान साक्षरता में 13.17% की वृद्धि हो गई है
2001 की जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है कि पुरुषों में साक्षरता 75.85% है जबकि औरतों में यह 54.16% ही है। साक्षरता के मामले में बिहार काफी पिछड़ा हुआ है। आंकड़ों के अनुसार आधा बिहार निरक्षर है, सर्वाधिक साक्षर राज्य केरल है।
कुल निष्कर्ष यह निकलता है कि नई जनगणना में साक्षरता के प्रतिशत में उल्लेखनीय बढ़ात्तरी के बावजूद वास्तविक प्रभाव की दृष्टि से अभी काफी दूरी तय करनी है। विकास के लाभों को विभिन्न तबकों में न्यायसंगत रूप में पहुँचाने के लिये साक्षरता के और व्यापक लक्ष्य केन्द्रित करने की जरूरत है।
भारत में विकास के विभिन्न पहलुओं और साक्षरता के बीच सम्बन्ध के बारे में एक अध्ययन में कहा गया है कि साक्षरता का महत्त्व सिर्फ सहभागी आर्थिक विकास में इसकी भूमिका तक सीमित नहीं है। बुनियादी शिक्षा की सामाजिक और वैयक्तिक स्तर पर कई अन्य भूमिकायें भी हैं,
यह पढ़ने-लिखने के अलावा जन्म-मुत्यु दर घटाने, सामाजिक, राजनीतिक गतिविधियों में भागीदारी के प्रति सचेत बनाने में मददगार साबित होती है। वस्तुतः बुनियादी शिक्षा जाग्रति पैदा करने का एक सांस्कृतिक उपाय है।
साक्षरता के महत्व को देखते हुए पिछले एक दशक में कुछ जागरूकता पैदा हुई है। यह देखा गया है कि आजादी के इतने वर्षों के बाद भी हमारी आबादी का विशाल हिस्सा निरक्षरता के अंधेरे में डूबा हुआ है। विशेष चिंता की बात यह है कि प्राथमिक स्कूलों में न केवल सारे बच्चों का दाखिला हो रहा है,
बल्कि दाखिला लेने वाले बच्चों में भी एक बड़ा हिस्सा बीच में ही पढ़ाई छोड़कर भाग रहा है। परिणामतः कृमिक रूप से प्रौढ़ों की पहले से ही मौजूद विशाल निरक्षर आबादी में ये भी शामिल होते जा रहे हैं। इस समस्या से सिर्फ अनौपचारिक शिक्षा के जरिए निपटना सम्भव नहीं है इसलिये 1988 में राष्ट्रीय साक्षरता मिशन की स्थापना की गई जिसका उद्देश्य 15 से 35 साल के प्रौढ़ों को साक्षर बनाना था।
इसके तहत अनौपचारिक शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा अभियान और सरकारी संगठनों के सहयोग आदि के जरिए लक्ष्य समूह को साक्षर बनाने का काम चल रहा है। इसके कुछ सकारात्मक परिणाम निकल भी रहे हैं।
प्राथमिक स्तर से उच्च प्राथमिकता स्तर तक आते-आते लड़कियों के स्कूल छोड़ने की दर चिंताजनक बनी हुई है, हालांकि पिछले वर्षों से यह थोड़ी घटी अवश्य है। लड़कियों की उम्र बढ़ने के साथ उन पर सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक बंधन कसने लगते हैं। इस स्थिति से निपटने वाली शिक्षा पद्धति ही लड़कियों को स्कूलों पर रोक सकती है।
छात्रवृत्ति और वितीय सहायता के अलावा स्कूल के समय या विशेष स्कूल पाठ्यक्रम सुरक्षा आदि पर ध्यान देना जरूरी है। राष्ट्रीय साक्षरता मिशन अपना अभियान जारी रखे हुए है। हालांकि इसमें और गति और व्यापकता की गुंजाइश है।
अपनी सीमाओं के बावजूद साक्षरता अभियानों ने सामुदायिकता और सामाजिक जागृति पैदा की है जिसके चलते बच्चों को स्कूल भेजने में रुचि बढ़ी है। साक्षरता के जरिए आई चेतना का एक रूप आंध्र प्रदेश के नेल्लौर में दिखाई पडा था। औरतों ने अरक विरोधी शानदार लड़ाई लड़ी थी और शराब बंदी को पूरे प्रदेश में राजनैतिक एजेंडे पर ला दिया था।
इन सब बातों से पता चलता है कि साक्षरता कितनी बड़ी जरूरत है पर तमाम अभियानों-कार्यक्रमों के बावजूद आज भी देश में लगभग 35 करोड़ लोग 6 काले-काले अक्षरों को नहीं पहचानने वाले ही हैं साथ ही साक्षरता अभियान के तहत नवसाक्षर बने लगभग दस करोड़ लोग दस्तखत वगैरह तक ही सीमित हैं।
यदि हम पिछले अनुभव बताते हैं कि कई बार ऐसे नवसाक्षर उपयोगिता के अभाव में पुनः निरक्षरता की दुनिया में लौट आते हैं। यदि हम ज्ञान-विज्ञान तकनीक, बौद्धिक सम्पदा, आर्थिक विकास जैसे तमाम क्षेत्रों में दुनिया से कदम मिलाकर चलना चाहते हैं तो हमें इन करोड़ों लोगों को शिक्षित-प्रशिक्षित करके साथ लेना ही होगा।
साक्षरता और विकास के ऐतिहासिक रूप से सिद्ध रिश्ते का अपवाद बनने की कोशिश हमारे लिए बहुत महंगी साबित हो सकती है इसलिये जरूरत इस बात की है कि सरकार शिक्षा के क्षेत्र में अपने दायित्वों को हटाने के बजाय उन्हें पूरा करने की दिशा में सक्रिय हो।
यह उदारीकरण और बाजार अर्थव्यवस्था के प्रभाव और चरित्र के मद्देनजर और लाजिमी है। शिक्षा के जारिए आम लोग उदारीकरण की मार सहने लायक तो कम से कम हो सकेंगे । इस संदर्भ में अमर्त्य सेन के विचार गौरतलब हैं, “भारत के विश्व बाजार से जुड़ने का उद्देश्य यहाँ बुनियादी शिक्षा के असामान्य निचले स्तर के कारण काफी बाधित हो रहा है और रोजगार का विस्तार नहीं हो रहा है।
इसके कारण नए आर्थिक अवसरों का उपयोग सीमित क्षेत्र में हो रहा है और रोजगार का विस्तार नहीं हो रहा है।" इन सभी बातों का मतलब यही है कि बुनियादी शिक्षा के सवाल को वास्तव में विकास से अभिन्न मानते हुए हम अपनी सारी शक्ति और संसाधनों के साथ 'सबके लिये शिक्षा' के एक व्यापक और निर्णायक अभियान में उतर पड़े।
जिस मानवीय चेहरे के साथ उदारीकरण-भूमंडलीकरण की बात की जा रही है, उसके लिए ऐसा करना जरूरी है। बाजार के वाहन पर सवार सरपट भागती दुनिया में अपने देश को एक बड़ी आबादी को पीछे छूटने से बचाने के लिये शिक्षा के एक जघन और समेकित कार्यक्रम का निर्माण और क्रियान्वयन आज हमारा एक प्रमुख राष्ट्रीय दायित्व है।
अपने तमाम कल्याणकारी कर्त्तव्यों से मुँह मोड़ता राज्य अगर शिक्षा के क्षेत्र में भी यही रवैया अपनाता है, तो उदारीकरण भूमंडलीकरण के जरिए जन-जीवन में आ रहे विध्वंस की विकरालता अकल्पनीय होगी।
बड़े ही दुःख की बात है कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के 54 वर्ष के बाद भी देशवासी अज्ञान रूपी अंधकार के कुयें में उसी तरह गोते लगा रहे हैं, जैसे पहले, यह एक अभिशाप है, देश के मस्तक पर कलंक है। इसके दो कारण हैं-एक तो शिक्षा इतनी महँगी हो गई है कि सर्वसाधारण उसको वहन करते-करते थक जाता है।
दूसरे, हम लोगों का ध्यान भी शिक्षा की ओर कम है। यदि हम अपने देश का कल्याण चाहते हैं तो प्रत्येक देशवासी का शिक्षित होना परम आवश्यक है। आश्चर्य है कि छ: पंचवर्षीय योजनाओं के बाद भी भारत की तीन-चौथाई से भी कहीं अधिक जनसंख्या आज भी अशिक्षित है।
आज भी करोड़ों व्यक्ति ऐसे हैं जिनके लिये काला अक्षर भैंस बराबर है। अशिक्षित जनता में प्रजातंत्र का सफलतापूर्वक निर्वाह कठिन हो जाता है। अपने अधिकार और कर्तव्य के ज्ञान से वे शून्य होते हैं। अशिक्षा के कारण न वे अपना अच्छा प्रतिनिधि ही चुन सकते हैं और न वे मत का महत्व ही समझते हैं। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।