भारतीय मुद्रा पर निबंध | ESSAY ON INDIAN CURRENCY IN HINDI
नमस्कार दोस्तों आज हम भारतीय मुद्रा
इस विषय पर निबंध जानेंगे। भारतीय मुद्रा की विश्वसनीयता खतरे में है।
विदेशी विनिमय बाजार में इसके गिरते मूल्य के कारण यह स्थिति पैदा हुई है।
भयावह दूरगामी परिणाम इस समस्या की गम्भीरता के सूचक हैं।
1993 में जब रुपये को चालू खाते परिवर्तनीय बनाया
गया, यह आशा व्यक्त की गयी कि इससे रुपया अपनी क्रयशक्ति के आधार पर
स्वाभाविक विनिमय दर प्राप्त करेगा और फिर विनिमय दर की मार्फत भारत में
विदेशी पूंजीनिवेश के अवसर उत्तरोत्तर प्रशस्त होते जायेंगे।
वित्त मन्त्री ने कहा था कि इस नीति से रुपए
को लाभ ही लाभ होगा। भारत का विदेशी मुद्रा भण्डार 1999 में मात्र एक अरब
डॉलर का था। यह 1995 में बढ़कर 20 अरब डॉलर हो गया। सब मिलाकर भारत की
बाहरी अर्थव्यवस्था अच्छे ढंग से चलती रही। समय ने पलटा खाया।
रुपये की माँग घटी और डॉलर प्राप्ति
के लिए तेज होड़ लग गयी। अतः पहले कुछ महीनों के दौरान रुपए की विनिमय दर
में तेजी से गिरावट आई है। यह गिरावट थमने का नाम नहीं ले रही है। देश की
बदलती आर्थिक परिस्थिति में भारतीय उद्योग को अधिक आयात की जरूरत है।
सट्टेबाजी के लिए भी अब अधिक डॉलर की जरूरत है।
सरकार की नई आर्थिक नीतियों के कारण
भी रुपये का अवमूल्यन पिछले दिनों तेजी से हुआ। सरकार बराबर इस बात से
चिंतित रहती है कि किसी भी ढंग से भारत का विदेशी मुद्रा भण्डार घटने न
पाये। मुद्रा अवमूल्यन के कारण रिजर्व बैंक ने यह नियम बनाया कि देश के पास
जो विदेशी कर्ज पर सूद तथा अन्य सेवाओं के तहत भारी मात्रा में अदायगी की
बाजार से रुपया उधार लेकर भी जाये।
इस कारण भारी मात्रा में विदेशी मुद्रा की खोज होने
लगी और रुपये के मूल्य में गिरावट आई। विडम्बना यह है कि रुपये के
अवमूल्यन की वजह से निर्यात में जो भी बढ़ोत्तरी हुई उसका लाभ औद्योगिक
विकास के इस नये कार्यक्रम को नहीं हो पाया और यही कारण है कि रुपए का
अवमूल्यन और तेजी से हुआ है।
निर्यात करने वाला व्यापारी देश से सामान
विदेशों में ले जाता है, लेकिन वहां से विदेशी मुद्रा लाने पर वह रोक लगाए
हुए है, क्योंकि मुद्रा को जितने अधिक समय के लिये विदेश में रखा जायेगा
उतना ही अधिक रुपये के मद में फायदा होगा।
इन सारी वजहों से सरकार की ऋण अदायगी
को नई नीति तथा रुपये के उत्तरोत्तर अवमूल्यन की व्यापारियों की आशा से
रुपये के मूल्य में गिरावट आयी। रुपये के निरन्तर अवमूल्यन को लेकर देश के
सम्बद्ध महकमों में खलबली मची हुई है।
यदि इस गिरावट को समय रहते रोका
नहीं गया तो देश जल्दी ही बरबादी के कगार पर पहुंच सकता है। भविष्य में
होने वाले परिणामों की प्रतिछाया देश की अर्थव्यवस्था पर दिखायी पड़ने लगी
है। रुपये के अवमूल्यन का पहला दुष्परिणाम देश के आयात-निर्यात पर हुआ है।
रुपये के मूल्य में गिरावट होने से आयात की
जाने वाली वस्तुएं मंहगी हुई हैं। इसके बावजूद आयात दो कारणों से तेजी से
बढ़ा है। पहला-अधिकांश नए उद्योग आयातित वस्तुओं के आधार पर खड़े हुए हैं।
दूसरा, भारत के सम्पन्न वर्ग को विदेशी वस्तुओं की भारी भूख है।
आयात-निर्यात की यह स्थिति मुद्रा अवमूल्यन के
सिद्धान्त के प्रतिकूल है। अतः रुपए के मूल्य में हो रही गिरावट एक
असाधारण स्थिति का संकेत देता है। रुपये के अवमूल्यन से विदेशी ऋण बोझ की
भारी वृद्धि हुई है। इससे जो तबाही होगी उसके कई उदाहरण सामने हैं।
हाल में मैक्सिको विदेशी ऋण की अदायगी
की असमर्थता के कारण बरबाद हुआ। 1980-92 के दौरान मैक्सिको ने विदेशों से
567 अरब डॉलर कर्ज लिया। इसके बदले में उसने 771 अरब डॉलर का ब्याज तथा
अन्य देनदारियां चुकाईं।
फिर भी मैक्सिको पर 1419 अरब डॉलर के
कर्ज का बोझ लदा रह गया। फलतः 1994 में मैक्सिको दिवालिया घोषित हो गया और
भारी विदेशी राहत भी उसकी अर्थव्यवस्था को सामान्य नहीं बना सकी। रुपये के
अनवरत अवमूल्यन का रहस्य अंततोगत्वा नई आर्थिक नीति के बुनियादी तत्वों
में ही ढूंढना होगा। इसके गिरते मूल्य को रोकने के लिए दो उपाय किये जा
सकते हैं।
एक रुपये की विनिमय दर के निर्धारण में
केन्द्रीय बैंक के नियन्त्रण को अधिक कारगर भूमिका निभानी होगी। अभी हाल
का अनुभव है कि यदि अमेरिका डॉलर और जापानी येन को अनियन्त्रित परिवर्तनीय
कर दिया जाए तो विनिमय दर प्रति डॉलर 200 येन हो सकती है।
लेकिन केन्द्रीय बैंकों के हस्तक्षेप के कारण
यह दर प्रति डॉलर 100 येन से आगे नहीं गई। इसी दर पर दोनों देशों के
विदेशी व्यापार चल रहे हैं। यदि भारतीय मुद्रा की विनिमय दर को स्थिर रखना
है, तो केन्द्रीय बैंकों के नियन्त्रण को अधिक प्रभावशाली बनाना चाहिए।
दो, नई आर्थिक नीति का फिर से
मूल्यांकन होना चाहिए। उदारीकरण के कारण भारत का पूरा विदेशी विनिमय बाजार
सट्टेबाजी का अड्डा हो गया है। इससे राष्ट्रीय आर्थिक विकास की उम्मीद
करना गलत है। उदारीकरण के सम्बन्ध में यह साफ जाहिर हो रहा है कि भारत ने
मैक्सिको का रास्ता अपनाया है।
मैक्सिको ने अपनी घरेलू अर्थव्यवस्था को
सुदृढ़ किये बिना विदेशी आर्थिक शक्तियों की घुसपैठ को अनियंत्रित प्रवेश
होने दिया। नतीजतन मैक्सिको एक दशक में पूरी तरह तबाह हो चुका है। दूसरी ओर
कोरिया ने पहले आन्तरिक अर्थव्यवस्था को उदार बनाया,
साथ ही देश के बाहरी अर्थतंत्र को
पूरी तरह नियन्त्रण में रखा। नतीजतन देश के आर्थिक विकास की दर काफी तेज
हुई। कोरिया के आर्थिक विकास का यह रास्ता कई अर्थ में एक मिशाल बन गया
है।
अतः विनिमय दर को यदि भारत की
अर्थव्यवस्था का प्रभावकारी औजार बनाना है, तो रुपये के गिरते मूल्य को
रोकना होगा और विश्वसनीयता को अन्तर्राष्ट्रीय विनिमय बाजार में सुदृढ़
करना होगा। यह काम उदारीकरण की पूरी प्रक्रिया पर फिर से विचार किये बिना ही हो सकता है। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।