राष्ट्रभाषा हिन्दी पर निबंध | Essay on Rashtrabhasha Hindi
नमस्कार दोस्तों आज हम राष्ट्रभाषा इस विषय पर निबंध जानेंगे। प्रत्येक देश की अपनी एक भाषा होती है जिसमें उस देश के प्रशासनिक कार्य किए जाते हैं तथा देश के अधिकांश लोग पारस्परिक व्यवहार में उस भाषा का प्रयोग करते हैं। उसी भाषा के माध्यम से उस देश के वैदेशिक सम्बन्ध संचालित होते हैं।
जिस देश में एक से अधिक भाषाएं प्रचलित होती हैं उस देश की किसी एक भाषा को राजभाषा, सम्पर्क भाषा या राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है। ऐसी भाषा के बोलने-समझने वालों की संख्या सर्वाधिक होती हैऔर अन्य लोगों द्वारा वह काफी सरलता से सीख-समझ ली जाती है।
बहुभाषाभाषी देश में कुछ दूसरी प्रमुख भाषाओं को भी क्षेत्रीय आधार पर महत्त्व प्रदान किया जाता है। भारत में स्वतंत्रता-पूर्व शासकों की भाषा अंग्रेजी' ही प्रशासन, शिक्षा, न्याय आदि की प्रमुख भाषा थी।
किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया तथा हिन्दी के साथ-साथ कुछ समय के लिए अंग्रेजी को भी सरकारी कामकाज के लिए अस्थायी रूप में स्वीकार कर लिया गया ताकि इस बीच अहिन्दी भाषा-भाषी भी हिन्दी की जानकारी हासिल कर लें।
भारत विश्व का सर्वाधिक विशाल गणतंत्र है जो संघात्मक होते हुए भी एकात्मक है। यहां पंजाब की भाषा पंजाबी, बंगाल की बंगला, केरल की मलयालम, उड़ीसा की उड़िया, असम की असमी, आंध्र की तेलुगू तथा तमिलनाडु की तमिल है।
ऐसी स्थिति में यह आवश्यक था कि किसी ऐसी भाषा की खोज की जाए जो उक्त सारे क्षेत्रों के बीच एकसूत्रता स्थापित कर सके। इस दृष्टि से राष्ट्रीय नेताओं ने 'खड़ी बोली' हिन्दी को सर्वाधिक उपयोगी माना और उसे भारत की राष्ट्रभाषा अथवा संपर्क भाषा के रूप में स्वीकार कर लिया।
अत: भारत की भाषागत विभिन्नताओं के बीच हिन्दी एकता की महत्त्वपूर्ण कड़ी बन गई है। भारत द्वारा हिन्दी को राष्ट्रभाषा मान लिए जाने के कई कारण हैं-यह भाषा लगभग हजार वर्षों से भारतीय जनता के बीच लोकप्रिय रही है। आज देश की लगभग आधे से अधिक जनसंख्या अच्छी तरह हिन्दी लिख-बोल सकती है। शेष जनसंख्या के दो तिहाई के बीच यह भाषा अच्छी तरह समझ ली जाती है।
ये लोग टूटी-फूटी हिन्दी में बोल भी लेते हैं और किसी तरह विचारों का संक्षिप्त आदानप्रदान कर लेते हैं। वाणिज्य, तीर्थयात्रा, परिवहन आदि क्षेत्रों में हिन्दी का व्यापक प्रचार है। भारत के लगभग सभी तीर्थ स्थानों में पंडित, पुजारी और पण्डे हिन्दी के जानकार हैं।
भारत के बाहर श्रीलंका, म्यांमार, गुयाना, मॉरीशस, सूरीनाम, फिजी आदि देशों में हिन्दी जानने वालों की काफी बड़ी संख्या है। इतनी अधिक लोकप्रियता के साथ-साथ हिन्दी को अपनाने का एक कारण यह भी है कि हिन्दी बहुत सरल भाषा है और इसे सीखने में विशेष असुविधा भी नहीं होती। इसकी लिपि देवनागरी' है जो बहुत सरल एवं वैज्ञानिक है।
मराठी एवं नेपाली भाषाओं की लिपियां भी देवनागरी ही हैं जिससे इन दो भाषाओं के प्रयोग करने वालों के द्वारा आसानी से हिन्दी सीखी जा सकती है। हिन्दी की यह भी एक विशेषता है कि संस्कृत की उत्तराधिकारिणी होने के कारण उसने भारत की प्राचीनतम परम्परा की अधिकांश विशेषताओं को अपने भीतर समेट लिया है।
विभिन्न क्षेत्रों में सहज ही प्रचलित होने के कारण यह अन्य भाषाओं के शब्दों को बहुत आसानी से अपने में समा लेती है और वे शब्द विजातीय न रहकर उसके अपने बन जाते हैं। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा बन सकी।
इसमें कोई संदेह नहीं कि मराठी, बंगला, तमिल आदि कुछ भारतीय भाषाओं का साहित्य काफी सम्पन्न है, किन्तु लोकप्रियता की दृष्टि से ये भाषाएं सर्व भारतीय नहीं बन पाईं तथा सीमित क्षेत्रों में ही उन्होंने अतुलनीय गौरव अर्जित किया।
सांस्कृतिक दृष्टि से हिन्दी का प्रयोग दसवीं शताब्दी से ही सर्वभारतीय रूप लेने लगा था। पंजाब से लेकर गुजरात तक तथा कर्नाटक, महाराष्ट्र, आन्ध्र आदि क्षेत्रों में सन्तों, योगियों, मुस्लिम सूफियों एवं दरबारी कवियों ने हिन्दी के अपभ्रंश, डिंगस, ब्रज, अवधी, मैथिली आदि रूपों में काव्य रचनाएं कीं।
अतः काफी लम्बी अवधि पूर्व हिन्दी अखिल भारतीय स्तर पर धर्म प्रचार, संगीत, मनोरंजन एवं जनसंपर्क की भाषा बन चुकी थी। 16वीं शताब्दी तक हिन्दी-अहिन्दी सन्तों, महात्माओं जैसे ज्ञानेश्वर, नामदेव, रामानन्द, गुरुनानक, गुरु गोबिन्द सिंह, कबीर, जायसी, सूर, मीरा आदि के कारण हिन्दी जनभाषा का रूप ले चुकी थी।
19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इसका खड़ी बोली रूप तेजी के साथ विकास करने लगा। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द, केशब चन्द्र सेन, रवीन्द्रनाथ टैगोर, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, तिलक, महात्मा गांधी, सुब्रह्मण्यम भारती जैसे मनीषियों के प्रयास से हिन्दी अपने वर्तमान रूप में राष्ट्रभाषा का रूप लेने लगी।
इस तरह चाहे प्राचीन संतों का योग हो, चाहे मुस्लिम संतों की धर्म प्रचार भावना हो, चाहे बादशाहों के दरबारी कवियों की रचनाएं हों, चाहे व्यापारियों, सैनिकों तथा तीर्थ यात्रियों की भाषा हो, हिन्दी देश की आत्मा को अभिव्यक्त करने में सफल हुई। भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता के पूर्व ही इसने अपने लिए आदर का भाव पैदा कर लिया था।
स्वतंत्र भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया तथा उसी क्षण से यह भी निश्चित हो गया कि 15 वर्षों बाद देश के सरकारी काम-काज हिन्दी में होने लगेंगे। लेकिन 1965 में तमिलनाडु द्वारा विरोध किए जाने पर यह निश्चित किया गया कि जब तक सभी अहिन्दी भाषी प्रान्त हिन्दी में पत्र-व्यवहार करना स्वीकार न करें तब तक उनके साथ अंग्रेजी में पत्र-व्यवहार किया जाएगा।
गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब आदि ने तो हिन्दी में पत्र-व्यवहार आरंभ कर दिया तथा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार एवं राजस्थान ने हिन्दी को अपनी राजभाषा घोषित कर दिया। आज स्थिति यह है कि केन्द्र सरकार के तथा संसद के सारे कार्य दोनों भाषाओं अर्थात हिन्दी और अंग्रेजी में किए जा रहे हैं।
लोक सेवा आयोगों में भी अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी भी परीक्षा का माध्यम मान ली गई है। भारत द्वारा हिन्दी को राष्ट्रभाषा मान लेने पर विदेशों में भी हिन्दी के प्रति गहन रुचि का विकास हुआ। अमेरिका, प. जर्मनी, रूस, कनाडा, सूरीनाम, गुयाना, फिजी, त्रिनीडाड आदि देशों में हिन्दी का पठन-पाठन सैकड़ों माध्यमिक विद्यालयों में भी प्रचलित है तथा उन देशों में हिन्दी की पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं।
विदेशों में स्थित हमारे राजदूतों के परिचय पत्रादि अंग्रेजी के साथ हिन्दी में प्रस्तुत किए जाते हैं। हिन्दी चलचित्रों की मांग लगभग सारे विश्व में है। हिन्दी के संगीतकारों का विदेशों में काफी सम्मान है। राजनीतिक कारणों से यदा-कदा हिन्दी साम्राज्यवाद के नाम पर हिन्दी के विरोध की आवाज उठने लगती है तथापि हिन्दी का प्रयोग दिनानुदिन बढ़ता ही जा रहा है।
देश की जनता राष्ट्रीय कर्त्तव्य एवं दायित्व के प्रति जागरूक है, अत: हिन्दी विरोधियों का प्रभाव नगण्य है। हिन्दी का प्रयोग भारत की प्रकृति के अनुकूल है। अत: राजभाषा से कहीं अधिक स्वाभाविक तथा गैर सरकारी संस्थाओं की चेष्टा से न्याय, औषधि, यांत्रिकी, वाणिज्य आदि क्षेत्रों के लिए विभिन्न शब्दावलियों का निर्माण कार्य तेजी से आगे बढ़ता जा रहा है।
व्याकरण जनित कठिनाइयों को दूर कर उसे अधिकाधिक सहज एवं सुबोध बनाने के प्रयास भी जारी हैं। यह विश्वास सहज ही जगता है कि इक्कीसवीं सदी के अन्त तक भारत अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा की विवशता से पूर्ण मुक्त हो जाएगा एवं राज्यों में राज्य की तथा केन्द्र में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का अक्षुण्ण स्थान प्राप्त हो सकेगा। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।