आत्मसम्मान पर हिंदी निबंध | Essay on Self Respect in Hindi

 

 आत्मसम्मान पर हिंदी निबंध | Essay on Self Respect in Hindi


नमस्कार  दोस्तों आज हम आत्मसम्मान इस विषय पर निबंध जानेंगे।भूमिका-मनुष्य में अच्छे तथा बुरे दोनों गुणों का अपूर्व मेल होता है। जिनमें अच्छे गुण होते हैं, उन्हें समाज द्वारा देवता की संज्ञा प्राप्त होती है और जिनमें बुरे गुणों की प्रधानता होती है उन्हें लोग रावण की संज्ञा देते हैं। 


इस आधार पर रावण, कंस और शिशपाल आदि लोग राक्षस कहे जाते थे तथा उनका विरोध करने की क्षमता रखने के कारण लोककल्याण का विकास करने के कारण राम, कृष्ण और परशुराम आदि भगवान के अवतार माने गये थे। 


इन दोनों वर्गों में रहने वाले तथा दोनों तरह के गुणों से प्रभावित और प्रेरित होकर काम करने वाले लोग नर या मनुष्य कहे गए। राम के छोटे भाई लक्ष्मण इस आधार पर नरत्व की सीमा में विद्वत किये गये। इस प्रकार के कुछ गुण मनुष्य की आत्मा को प्रभावित करते हैं। आत्मसम्मान इन्हीं गुणों में से एक महत्वपूर्ण गुण है।


आत्मसम्मान का रूप-मनुष्य में आत्मसम्मान कई-कई रूपों में दिखाई पड़ता है। आत्मसम्मान का अर्थ है कि मनुष्य के 'रूप' का सम्मान। इसका वह स्वयं अनुभव करता है तथा इस सम्मान का वह अपने को अधिकारी भी मानता है। 


आत्मसम्मान की भावना सभी व्यक्तियों में थोड़ी-बहुत आवश्यक रूप से होती है। कुछ लोगों में यह भावना अधिक महत्वपूर्ण होती है तथा दूसरी भावनाओं को गौण बनाकर प्रधानता प्राप्त कर लेती है तथा शेष अधिकांश लोगों में इसका बल कम मात्रा में रहता है और वे दूसरी भावनाओं के वशीभूत होकर आत्मसम्मान को रक्षा नहीं कर पाते।


आत्मसम्मान उचित और न्यायपूर्ण मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है। मनुष्य को न्याय के मार्ग पर चलने के लिए जिन कष्टों का सामना करना पड़ता है वह उन्हें इन कष्टों का सामना करने की शक्ति प्रदान करती है। उदाहरण के लिए, अकबर शासन काल में प्रायः सभी भारतीय नरेश उसकी अधीनता स्वीकार करके सुख-सुविधा के साथ अपना राज्य चलाते थे। मानसिंह भी उन्हीं राजाओं में से एक था।


जिसे अकबर की कृपा प्रभूत मात्रा में प्राप्त थी। वह जब शोलापुर पर विजय प्राप्त कर लौटते हुए चित्तौड़ में महाराणा प्रताप से मिला तो उसके मन में प्रताप के प्रति कट्ता की भावना नहीं थी। दोनों ही परस्पर प्रेम तथा सद्भावना के साथ मिले, किन्तु भोजन के समय राणा का न आना मानसिंह को खटक गया।


उत सन्देह या आभास हो गया कि राणा प्रताप मुझे म्लेच्छ समझकर मेरे साथ भोजन नहीं करना चाहते, इसलिए वे स्वयं नहीं आए। अपने इस सन्देह का उपाय; अर्थात् दूर करने के लिए उसने राणाजी को बुलाने का आग्रह किया, किन्तु राणाजी ने बहाना कर दिया और उसके शक ने विश्वास का रूप धारण कर लिया। फिर उसके मन में आत्मसम्मान की भावना जाग उठी और उसे अपनी पूर्ण शक्ति का ज्ञान हो गया। 


सने उसके प्रयोग का उपक्रम किया। राजा की ओर से तुरन्त ही उत्तर दिया गया। इससे मानसिंह का सामाजिक और जातीय अपमान हुआ। उसके सम्मान को ठेस लगी। प्रतिशोध की भावना ने जड़ जमा ली। यह आत्मसम्मान का ही एक रूप है जो समय के अनुसार मनुष्य को इतना शक्तिशाली बना देती है कि संसार में किसी भी वस्तु को, मनुष्य को किसी भावना को उसके लिए कुछ नहीं गिनता। 


आत्मसम्मान में पूर्ण शक्ति, अलौकिक सहिष्णुता तथा असीम उत्साह होता है। इस भावना से प्ररित होकर मनुष्य असम्भव को तम्भव, कठिन को सरल तथा सुखमय जीवन को कष्टमय भी बना सकता है। आत्मसम्मान की आवश्यकता-आत्मसम्मान आत्मा का वह गुण है जिससे न्याय पर मिटने की अभिलाषा और दृढ़ होती है। इसका सम्बन्ध मूल रूप से आत्मा से होता है।


इसलिए शुद्ध स्वाभिमान में परपीड़न तथा मिथ्याभिमान और अहंकार का अभाव रहता है। इस भावना में अपने से सबल का सामना करने की प्ररेणा मिलती है और भय का इसमें कोई स्थान नहीं होता। अभिमान अपनी शक्ति को अपने सम्मान का साधन बनाता है तथा साधारण लोगों से सम्मान पाकर सन्तुष्ट हो जाता है, परन्तु आत्मसम्मान, अन्याय और मिथ्याभिमान पर विश्वास नहीं करता।


अपने नीचे को वह प्रभावित करने की कोशिश भी नहीं करता। अतः आत्मसम्मान की भावना का समाज में आदर होता है। आत्मसम्मान के बल पर मनुष्य समाज में शान्तिपूर्वक रहता है। लोक-व्यवहार में महत्व-आत्मसम्मान एक ऐसा गुण है जिसका सम्बन्ध लोक-व्यवहार में विशेष रूप से होता है।


आत्मसम्मान की रक्षा के लिए मनुष्य सदैव तैयार रहता है। आत्मसम्मान लोक-निन्दा को सहन नहीं कर पाता। शर्मिन्दा होने से पहले वह मर जाना पसन्द करता है। इससे लाभ यह होता है कि आत्मसम्मानी व्यक्ति निन्दनीय कार्यों से पूर्णरूप से बचने का प्रयास करता है।


इस प्रकार वह संसार की सभी बुराइयों से दूर रहता है। चूंकि आत्मसम्मानी व्यक्ति लोक-सम्मान से प्रसन्न होता है अतः परोपकार, दया, करूणा, निर्बल-रक्षा आदि कार्यों को बराबर करता रहता है, जिसमें, आत्मसम्मान की भावना होती है। 


वह समाज को उन्नत बनाने का सदैव प्रयत्न करता रहता है। आत्मसम्मान रखने वाले व्यक्तियों में बहुत शक्ति होती है, जिससे वह बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का सामना दृढ़ता से करता है। व्यावहारिक दृष्टि से इससे हानियाँ भी होती हैं। मनुष्य जीवन के सदैव दो पक्ष होते हैं-प्रथम लौकिक और दूसरा आध्यात्मिक या अलौकिक। 


अलौकिक का अर्थ भौतिक वस्तुओं से है. जो हमारे शरीर के सांसारिक सुखों और सुविधाओं में सहायक होती हैं, अतः इसका सम्बन्ध शरीर से ही विशेष रूप से है। आध्यात्मिक पक्ष मनुष्य की आत्मा से सम्बन्धित है और इसका सख-दःख सात्विक भावों से सम्बन्ध होता है। 


आत्मसम्मानी सांसारिक सुख-सम्पत्ति की परवाह नहीं करता और वह लोक सम्मान के लिए आत्मसम्मान का त्याग कर देता है। इससे अनेक प्रकार के कष्ट होते हैं। राणा के व्यवहार से मानसिंह तिलमिला उठा और उसने मुगल सेना की सहायता लेकर राणा को नष्ट करने के लिए या उसको झुकाने के लिए चढ़ाई कर दी। फलतः भयंकर युद्ध हुआ। 


मानसिंह के नायकत्व में अपार मुगल शक्ति को दबाने में राणा की सीमित, पर अदम्य शक्ति सफल न हो सकी। उन्हें बहत हानि उठाकर भागना पड़ा। फिर भी आत्मसम्मान को त्याग कर अकबर की अधीनता नहीं स्वीकार की तथा मानसिंह से मित्रता का भाव भी नहीं जोड़ते बना।


उपसंहार-मनुष्य तथा समाज दोनों पर ही आत्मसम्मान का प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार के मनुष्य को समाज सदैव आदर के साथ स्मरण करता है। उनके अनुयायियों की कमी हो सकती है। पर उनमें दृढ़ता की एक मान्य परम्परा रहती है। 


इससे आत्मसंतोष की भावना बढ़ती जाती है तथा इससे आत्म-शान्ति भी मिलती है। आत्मसम्मान का मानवता के मूल गुणों में महत्वपूर्ण स्थान है। अतः हर उन्नतिशील व्यक्ति का यह कर्तव्य होना चाहिए कि वह यथासम्भव आत्मसम्मान की उन्नति करे और उसकी रक्षा करे। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।