यौन शिक्षा पर निबंध | Essay on Sex Education in Hindi
नमस्कार दोस्तों आज हम यौन शिक्षा इस विषय पर निबंध जानेंगे।कितनी आवश्यक प्रस्तावना-यदि यह प्रश्न पूछा जाये कि वात्स्यायन का 'कामसूत्र' जयदेव की रतिमंजरी कल्याणमल का 'अंतरंग' ज्योतिशिखर का ‘पंचशायक' एवं कोका पण्डित का ‘कोकशास्त्र' प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक, समाज के नवयुवाओं से लेकर प्रौढ़ों एवं वृद्धों तथा महिलाओं तक में भी, जो चाहे।
प्राथमिक स्तर तक ही शिक्षा पाये हों या अनपढ़ ही क्यों न हों, क्यों चर्चा का विषय रहे हैं, तो ‘यौन शिक्षा' का महत्त्व बिना किसी विशेष प्रयास के समझ में आ सकता है। इससे इतना और भी स्पष्ट हो जाता है कि समाज में प्रत्येक समझ में ‘यौन' या सेक्स शब्द सामान्यतया एक चौंकाने वाले जिज्ञासा एवं उत्सुकता को प्रोत्साहित करने वाले रहस्यों के गहन अन्धकार में छिपे ।
हमारे अस्तित्व अथवा शख्सियत को स्पर्श करने वाले एक तीव्र स्पन्दन के रूप में विद्यमान रहा है। भले ही भद्रजन इसे सबकी नजरों से छुपाकर अपने एकान्त कहीं 'सम्पत्ति' के रूप में देखते रहे हैं।
इसका सामाजिक अथवा सार्वजनिक स्वरूप सदैव ही लज्जा एवं शील के आवरण में छिपाकर ही रखा गया है और हमेशा से शरीर, मन एवं समाज तीनों से समान रूप से सम्बद्ध इस अत्यन्त नाजुक एवं संवेदनशील प्रकरण को छेड़ना यदि वर्जित नहीं तो खतरनाक अवश्य माना जाता रहा है।
ऐतिहासिक तथ्य है कि यदि आचार्य शंकर को यौन विषयों का पर्याप्त ज्ञान होता है तो शास्त्रार्थ में वे शायद ही मण्डनमिश्र की विदुषी पत्नी भारती से पराजित होते और अतिरिक्त समय माँगकर यौन शिक्षा की प्राप्ति के पश्चात् पुनः शास्त्रार्थ में भारती को पराजित करते।
वर्तमान समाज तथा यौन सम्बन्ध-वर्तमान समाज ‘यौन' अथवा 'सेक्स' को केवल 'लिंग' (स्त्री या पुरुष) के रूप में ही मान्यता देता है, जबकि पूर्वकाल में यह जनन-स्थानों के सामान्य शब्द से सम्बन्धित था। उस समय भी इसके सम्बन्ध में अनेकानेक भ्रान्तियाँ थीं।
इसके अतिरिक्त अपनी सामाजिक संरचना का प्रारम्भ से ही मनुष्य अपने यौन व्यवहार के नियन्त्रण एवं उन्मुक्ति की समस्याओं से घिरा रहकर आज तक इसके नियन्त्रण एवं खुलेपन को परिसीमित नहीं कर पाया है। पाश्चात्य देशों में यदि नियन्त्रण की अपेक्षा उन्मुक्त की मात्रा अधिक है तो कम-से-कम हमारे देश में उस पर नियन्त्रण ही प्रभावी है।
हमारे पारस्परिक समाज में यौन-व्यवहार एवं उसकी चर्चा दोनों को ही अतिगोपन की सीमा में जकड़ दिया गया है। किसी भी सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज की शालीनता उसके नैतिक एवं परम्परागत आदर्श तथा नियन्त्रित मर्यादाएं आज भी किन्हीं दो घनिष्ठतम सम्बन्धों के बीच यौन-व्यवहारों से सम्बन्धित चर्चा को अवांछित ही मानती आ रही हैं।
इसमें जिस प्रकार यौन-स्वेच्छाचार को मर्यादाओं का उल्लंघन माना जाता है, उसी प्रकार इसकी चर्चा को भाषिक मर्यादाओं का उल्लंघन। पारम्परिक समाज के कठोर बन्धनों में जकड़े इस विषय के ज्ञान के प्रकाश में न आ सकने का कारण ही आज की अनेक यौन-समस्याओं का मूलभूत कारण मानते हुए इसके शिक्षण की प्रासंगिकता पर विचार किया जाने लगा है और यौन विशेषज्ञों के अतिरिक्त समाज के अन्य क्षेत्रों से जुड़े चिन्तक विचारक भी इसके समर्थन में आगे आ रहे हैं।
यौन शिक्षा की आवश्यकता 'यौन शिक्षा' या 'सेक्स एजूकेशन' सही अर्थों में अब एक अनिवार्य आवश्यकता बनती जा रही है। इस समय सामाजिक विचार भी इस दिशा में झुकता जा रहा है कि समाज में व्याप्त विकृत यौन व्यवहारों के पीछे स्वस्थ यौन-चर्चा का अभाव।
अर्थात् उसकी जानकारी का वैज्ञानिक एवं नियोजित आदान-प्रदान न होना ही एक प्रमुख कारण है जिसके परिणामस्वरूप एड्स जैसी भयंकर बीमारी का बढ़ता क्षेत्र, बच्चियों एवं युवतियों का यौन-शोषण, अनियन्त्रितता, जनसंख्या वृद्धि, यौन व्याधियों का प्रसरण, समाज में नीम-हकीमों का यौन-विज्ञापनवेत्ता के रूप में बढ़ता प्रभाव, समलैंगिकता आदि प्रभावी हैं।
वास्तविकता भी इस बिन्दु के समीप ही कहीं स्थित है। ऐसे समय में यौन शिक्षा का नियोजन, उसको पाठ्यक्रम में शामिल करना एवं उसे सार्वजनिक शिक्षा के रूप में अनिवार्य रूप से प्रसारित करना आवश्यक हो गया है। इसकी आवश्यकता के मद्देनजर कुछ प्रश्न स्वाभाविक रूप में उठते हैं;
जैसे-यौन शिक्षा प्रदान करने का स्वरूप क्या हो? उसको किस आयु-वर्ग से प्रारम्भ किया जाये? इसके पाठ्यक्रम में किन बिन्दुओं को प्रमुखता दी जाये? समाज पर इसके दूरगामी प्रभाव क्या होंगे? इससे होने वाले सामाजिक परिवर्तन कैसे होंगे आदि।
वैसे देखा जाये तो यौन शिक्षा से समाज में व्याप्त अनेकानेक यौन सम्बन्धी भ्रान्तियों एवं समस्याओं के निराकरण की दिशा में एक प्रभावकारी एवं सामाजिक स्थायित्व के लिए उपयोगी विषय ही है और प्रत्यक्षतः हर व्यक्ति इससे जुड़ा हुआ है। वर्तमान समय में तीव्रता से प्रभावी हो रहे सामाजिक परिवर्तनों का असर बच्चों से लेकर वयस्कों एवं वृद्धों तक के मनो-मस्तिष्क पर पड़ रहा है।
इससे व्यक्तिगत एवं सामाजिक स्वास्थ्य पर लाभदायक परिणाम की तो आशा की ही जा सकती है। चूँकि यह प्रत्येक मनुष्य की आधारभूत आवश्यकता है। इसलिये इसे जाति, लिंग, प्रजाति, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति तथा बौद्धिकता की सीमाओं से हटाकर सभी को समान रूप से दिया जाना चाहिए।
हमारे पारम्परिक यौन-दमित समाज में, जिसमें यौन सम्बन्धी 'मिप' अपने उग्र रूप में विद्यमान है और पीढ़ी-दर-पीढ़ी यथावत् संचालित होते रहे हैं। सभी स्तरों पर औपचारिक यौन शिक्षा की महती आवश्यकता है तथा इसे हर उम्र-वर्ग के लोगों को उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
इसकी अहम आवश्यकता को देखते हुए इसके और अधिक उपयुक्त समय की प्रतीक्षा न करना ही श्रेष्यकर है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर ही अभी हाल ही राजधानी नई दिल्ली में आयोजित ‘यौन विज्ञान' के अखिल एशियाई सम्मेलन में 'राष्ट्रीय यौन शिक्षा कार्यक्रम', 'नेशनल सेक्सुअल हैल्थ एजूकेशन प्रोग्राम' प्रारम्भ करने का प्रस्ताव पारित किया गया है।
इससे इस तथ्य पर विशेष ध्यान दिया गया है कि समाज में माता-पिता अथवा शिक्षक यौन शिक्षा में पूर्णतः पारंगत न होने के कारण इस विषय को नजरअंदाज ही करते रहते हैं और इससे सम्बन्धित विषयों को अति गोपनीय की श्रेणी से निकालना नहीं चाहते,
जबकि परम्परावादी समाज एवं उन्मुक्त जनसंचार के माध्यम के बीच फँसा नवयुवक वर्ग सेक्स को एक रहस्यमयी एवं रोचक वस्तु के रूप में देखता है। इसका नकारात्मक प्रभाव नगरीय परिस्थितियों के विपरीत ग्रामीण परिस्थितियों में अधिक पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप अनियन्त्रित जनसंख्या वृद्धि एवं जनसंख्या विस्फोट की स्थिति बन गयी है। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।