भारत में किसानों की स्थिति | Hindi Essay on Bharat me Kisano ki Sthiti
नमस्कार दोस्तों आज हम भारत में किसानों की स्थिति इस विषय पर निबंध जानेंगे।भारतीय अर्थव्यवस्था के अस्तित्व एवं विकास का सम्बन्ध किसानों से आदिकाल से जुड़ा है। आज भी भारतीय जनसंख्या के 70% लोग ऐसे हैं जो खेती एवं उससे सम्बन्धित कार्यों से जुड़े हैं, इसलिए भारतीय अर्थव्यवस्था में आधारभूत एवं अनिवार्य आवश्यकताओं की आपूर्ति के मुख्य स्रोत भारतीय किसान ही हैं।
यद्यपि नियोजन काल में भारत के कृषि क्षेत्र में व्याप्त दीर्घकालीन गतिहीनता समाप्त हुई है किन्तु विकसित राष्ट्रों की तुलना में आज भी भारतीय किसान पिछडा हआ है। यहाँ यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि वर्तमान आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में भारतीय किसान को भविष्य में अधिक गम्भीर चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।
आजादी के 54 वर्ष बाद भी भारतीय किसान अनेक प्रकार की संगठनात्मक एवं संरचनात्मक समस्याओं से जूझ रहा है। भारतीय किसान की बदहाली के मुख्यतः तीन कारण बताए जाते हैं। पहला यह कि सरकार और देश का बुद्धिजीवी वर्ग किसान विरोधी रहा है। सरकार ने कृषि से अधिशेष लेकर उद्योगों और शहरों का विकास किया।
यहां के बुद्धिजीवी वर्ग ने खेतों-खलिहानों से खूनी क्रांति पनपने का सपना देखा। इसलिए इन परिस्थितियों में अगर भातीय किसान पिछड़ा ही रह गया तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। दूसरा यह कि कृषि के विकास के लिए पर्याप्त योजना का निर्माण तथा पूंजी निवेश नहीं हुआ है।
पूंजीपतियों को ध्यान में रखते हुए हरितक्रान्ति के अन्तर्गत सरकारी पूंजी निवेश कुछ ही क्षेत्रों और फसलों के लिये किया गया। देश का अधिकांश क्षेत्र कृषि विकास से वंचित रहा है। तीसरा, किसानों को विकास में पर्याप्त भूमिका नहीं दी गयी। नेहरूवादी विकास व्यवस्था में विकास का दायित्व नौकरशाहों पर सौंपा गया था और उदारवादी काल में यह जवाबदेही पूंजीपतियों को दी गयी।
इन तथ्यों से ऐसा स्पष्ट होता है कि सरकार ने अभी तक कृषि और किसानों की अनदेखी की है जिसके कारण उसे नई राष्ट्रीय नीति की घोषणा करनी पड़ी। नई राष्ट्रीय कृषि नीति का प्रमुख बिन्दु भूमि सुधारों के माध्यम से गरीब किसानों को भूमि प्रदान करना है साथ ही जोतों का समेकन भी।
इस नीति में कृषि क्षेत्रों में निवेश को बढ़ावा देने की भी बात कही गयी है। किसानों को फसल के लिए बीमा कवर प्रदान करना इस नीति की एक और विशेषता है। नई कृषि नीति में इस बात का भी उल्लेख है कि किसान के बीजों के लेन-देन के अधिकार को बनाए रखा जायेगा।
किसानों के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने की बात इस नीति में कही गयी है। नई नीति में किसान के जोखिम प्रबंध का भी ध्यान रखते हुए कहा गया है कि कृषि-उत्पादों के मूल्यों में बाजारी उतार-चढ़ाव सहित बुवाई से फसल कटाई तक किसानों को बीमा पॉलिसी पैकेज उपलब्ध कराने का प्रयास किया जायेगा।
नई राष्ट्रीय कृषि नीति के विभिन्न तत्वों का गहराई के साथ विश्लेषण करने पर तथा भारत सरकार की मुख्य आर्थिक प्रमुखताओं पर गौर करने से ऐसा लगता है कि सरकार ने जो नई नीति की घोषणा की है उसका मुख्य लक्ष्य ठेके की खेती तथा लीज की व्यवस्था को कानूनी जामा पहनाना है।
जब यह नीति लागू हो जायेगी तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियां एग्री बिजनेस के माध्यम से इस देश की खेती में प्रवेश करेंगी और पूंजी निवेश करेंगी। ठेके की खेती के स्वरूप का किसानों पर क्या असर पड़ेगा, इसका आकलन उन देशों के अनुभव से किया जा सकता है जहां ठेके की खेती और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा कृषि क्षेत्र में भारी मात्रा में पूंजी निवेश किया गया है। अमेरिकी देशों को ठेके की खेती का अच्छा अनुभव है।
ठेके की खेती एग्री बिजनेस के कारखानों के आस-पास होती है। ठेके की खेती में खेत का कानूनी मालिक किसान होता है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां किसानों से उनकी खेती ठेके पर ले लेती हैं। फिर किसानों को अपने खेतों में कम्पनियों के मन-मुताबिक फसलें उगानी पड़ती हैं।
उन खेतों में किस तरह का बीज इस्तेमाल होगा, कितना पानी देना होगा, पौधों की देखभाल कैसे की जायेगी तथा फसल का निरीक्षण कैसे होगा ये सारी बातें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की देख-रेख में होंगी। किसानों एवं उनके परिवार के लोगों को पारिश्रमिक कम्पनी और किसानों के बीच समझौते के द्वारा तय किया जाता है।
किसानों की जवाबदेही होती है कि दे फसल को कम्पनी की इच्छानुसार उगायें। यदि खेती करने तथा फसल की निगरानी करने में किसान से चूक होती है तो किसान को दण्ड का भागी बनना पड़ता है। कुल मिलाकर ठेके की खेती भारतीय परम्परा से भिन्न व्यवस्था है, इसमें किसान बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का बंधुआ मजदूर हो जाता है।
आज भी देश के लगभग 78 प्रतिशत किसान अपनी ही जमीन पर खेती करके अपर्याप्त आय से एक मजदूर की भांति जीवन-यापन करने को विवश हैं। क्योंकि समय के साथ-साथ देश में कृषि जोतों के औसत आकार में कमी आने के फलस्वरूप राष्ट्रीय स्तर पर छोटे एवं सीमान्त किसानों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है।इसलिये वे अलाभकर जोतों पर निर्भर रहने को बाध्य हो रहे हैं।
इसलिये नई कृषि नीति भी छोटे किसानों को लाभ पहुंचाने के बजाय बड़े किसानों को ही लाभान्वित कर सकती है क्योंकि इसके पहले हरित क्रान्ति की जो नीति अपनाई गयी थी उसमें भी छोटे किसानों को कर्ज और भयावह गरीबी के दुष्चक्र से बाहर निकलने का कोई उपाय नहीं था।
बल्कि वह बड़े और अमीर किसानों को और सम्पन्न बनाने में मददगार सिद्ध हुई है। चार वर्ष पूर्व आन्ध्र प्रदेश (बारंगल), कर्नाटक (गुलबर्गा) और महाराष्ट्र (अमरावती) में किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं देश की बहुप्रचारित हरित क्रान्ति की खामियों को उजागर करती है।
1980 में भी आन्ध्र प्रदेश के उन किसानों ने आर्थिक तंगी की वजह से आत्महत्या की थी। का पहाडी (उड़ीसा) में तो भूख से मौतें रोजमर्रा की घटना बन गई हैं। किसानों की आत्महत्या की त्रासदी के परिप्रेक्ष्य में यह तथ्य उजागर हुआ है कि देश के छोटे और सीमान्त किसान महाजनों के ऋण-जाल में बुरी तरह फंस चुके हैं। किसानों द्वारा आत्महत्या को मजबूर होना भारत जैसे कृषि-प्रधान राष्ट्र के लिये लज्जाजनक और चिंतनीय है।
भारतीय किसान की कई विशेषताएँ हैं-वह स्वायत्त होता है। अपनी मर्जी और संचित ज्ञान से अच्छी खेती करना चाहता है। किसानों की जिन्दगी ऋतुओं से बंधी हुई है। उत्सव, पर्व, व्यवहार, सामाजिक रस्म-रिवाज और पारिवारिक दिनचर्या ऋतुओं के हिसाब से चलते हैं। भारत की पूरी सांस्कृतिक विरासत इन्हीं पर आधारित है।
यदि इन सांस्कृतिक अवयवों को छोड़ दिया जाये तो भारत को एक राष्ट्र की संज्ञा देना मुश्किल होगा। किसानों का खेत के पौधों से रागात्मक सम्बन्ध होता है। आज रूस के आर्थिक पुनर्निर्माण को यह सबसे बड़ी चुनौती है कि उसने वास्तविक किसानों को नष्ट कर दिया है। सुपरवाइजर और कृषि मजदूर के बीच की खाई को किसान की पाट सकता था।
इस कृषि नीति को अपनाने के बाद रूस जैसी स्थिति भारत के सामने भी खड़ी हो सकती है। नई कृषि-नीति को लागू करने के बाद किसानों के जीवन में खुशहाली आने के बजाय कंगाली आने की सम्भावना अधिक है। जिन देशों में ठेके की खेती का प्रचलन हुआ है उन देशों का अनुभव यह बताता है कि यहां के किसान कंगाल अधिक हुए हैं।
इसके तीन कारण हैंपहला यह कि राष्ट्रीय कम्पनियों के सम्पर्क में आने पर किसान परिवारों की जीवन शैली बदल जाती है। वह खर्चीला और उपभोगवादी हो जाता है। कम्पनियां उन्हें कर्ज लेने के लिये प्रोत्साहित करती हैं। अनुभव बतलाता है कि ठेके की खेती वाले इलाकों में किसानों की ऋण ग्रस्तता बढ़ जाती है।
वैसे भी भारतीय किसान का ऋण-जाल में फंसना आम बात है। दूसरा यह कि कई देशों का अनुभव यह बताता है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनी किसानों को धोखा देने से भी बाज नहीं आती हैं। यदि किसी वर्ष किसी फसल की उपज विश्वस्तर पर बहुत ज्यादा हो जाती है और कम्पनी द्वारा तैयार किये गये उत्पाद की कीमत बहुत कम हो जाती है तो ये कम्पनियां इन परिस्थितियों में किसानों को बिना भुगतान किये भाग जाती हैं।
छोटे गरीब किसान इन्हें पकड़ने में सक्षम नहीं हैं। फिर बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भारत की नौकरशाही और नेताओं को खरीदने की क्षमता भी रखती हैं। तीसरा कारण यह है कि ठेके की खेती जब बड़े पैमाने पर होने लगेगी और कृषि क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का प्रभावशाली प्रवेश हो जायेगा तो देश में खाद्यान्नों का उत्पादन कम होने लगेगा।
लेकिन आज भारत इन्हीं किसानों की बदौलत 20 करोड़ टन से अधिक खाद्यान्न पैदा कर रहा है। अतः भारत के लिये खाद्य सुरक्षा एक समस्या बनकर खड़ी हो जायेगी। भारत के औद्योगिक, वैज्ञानिक एवं आर्थिक भवन की नींव किसानों के परिश्रम पर टिकी है।
किसानों की मजबूत रीढ़ पर ही हम स्वच्छ, सुन्दर, समृद्ध एवं आत्मनिर्भर गांवों का निर्माण कर सकते हैं। नगरों को खुशहाल और समृद्धि के मार्ग पर अग्रसर कर सकते हैं। अतः किसानों को वह सारी सुविधायें दी जानी चाहियें, जो औद्योगिक क्षेत्र के उद्यमियों को प्राप्त हैं।
लहलहाते खेतों, स्वच्छन्दता से विचरण करते पशु-पक्षी, झूमते वन वृक्ष, कलकल बहती नदियां, पुष्पों से भरे जलाशय, प्रकृति की गोद में खेलते ग्राम, विद्युत के रंग-बिरंगे प्रकाश में जगमगाते नगर, गांव तथा नगरों को जोड़ते शिक्षित युवक-युवतियां-सबका अभिभावक किसान है।
लेकिन भारत के अधिकांश किसान छोटे-छोटे किसान हैं जिनकी औसत जोत एक एकड़ से भी कम है। अतः किसानों तथा खेतिहर मजदूरों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए मिश्रित कृषि, डेयरी फार्मिंग, कृषि वानिकी, बागवानी, पशुपालन तथा कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है।
भारत में किसानों को सुदृढ़ बनाने के लिए कृषि के वैज्ञानिक एवं सहकारी विकास की आवश्यकता है। 2-4 बीघे के छोटे-छोटे खेतों पर वैज्ञानिक विधियों से खेती करना सम्भव नहीं होता है।
जहाँ 20-30 या अधिक किसान मिलकर एक विशाल सहकारी कृषि फार्म का निर्माण करके वैज्ञानिक विधि से मिश्रित कृषि, कृषि वानिकी, बागवानी, शाक-सब्जी, उत्पादन तथा लघु उद्योगों का विकास करने के इच्छुक हों, वहां पर सरकार द्वारा पर्याप्त सहायता एवं वैज्ञानिक विकास के लिए एक राष्ट्रीय कार्यक्रम के कार्यान्वयन करने की आवश्यकता है।
गांवों में सड़कें, रास्ते, पेयजल, पार्क, स्कूल, सामूहिक शौचालय, जल निकासी की नीतियाँ, बायो गैस संयन्त्र, खेल के मैदान तथा खाद के गड्ढों की अच्छी व्यवस्था करके ही हम किसानों/मजदूरों का जीवन-स्तर ऊँचा उठा सकते हैं।
निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि वर्तमान परिवेश में 'जय जवान जय किसान' और 'जय विज्ञान' का नारा तभी सार्थक हो सकता है जब भारत में किसान पूर्णतः आत्मनिर्भर हो जायेगा तथा उसका सोचने का दृष्टिकोण भी वैज्ञानिक हो जायेगा।
प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक डॉ० एम० एस० स्वामीनाथन के इन शब्दों से शिक्षित युवकों को प्रेरणा लेनी चाहिए-“कृषि क्षेत्र को बौद्धिक तबके, खासकर कृषि वैज्ञानिकों और छात्रों के लिए आकर्षक तथा आर्थिक रूप से लाभदायक बनाया जाना चाहिये।
कृषि विज्ञान के अधिकतर छात्र शिक्षा समाप्त करने के बाद कृषि को अपना व्यवसाय नहीं बनाना चाहते। इस क्षेत्र में अधिक युवाओं को आकृष्ट करने के लिए कृषि को सूचना प्रौद्योगिकी की तरह सूचना-प्रधान बनाया जाना चाहिये।"दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।