साहित्यकार का दायित्व हिंदी निबंध | Hindi Essay on Sahityakar ke Dayitav

 

साहित्यकार का दायित्व हिंदी निबंध | Hindi Essay on Sahityakar ke Dayitav  

नमस्कार  दोस्तों आज हम साहित्यकार का दायित्व हिंदी निबंध इस विषय पर निबंध जानेंगे। 

साहित्यकार हमारे समाज का एक अभिन्न अंग है। साहित्यकार एक विवेकशील, बुद्धिमान और संवेदनशील प्राणी है। इस तरह समाज और साहित्य के बीच की कड़ी साहित्यकार है। साहित्यकार इसी समाज में रहते हुए साहित्य सृजन करता है, इस प्रकार से दोहरे दायित्व का निर्वाह करना पड़ता है।

साहित्यकार जिस देश में जन्म लेता है और जिस समाज में रहता है, वहां की परिस्थितियां उसके मस्तिष्क और हृदय को प्रभावित करती हैं। लेखक और जनसाधारण दोनों की प्रतिभा में अन्तर होता है। जनसाधारण अपने परिवेश में घटने वाली प्रत्येक घटना को देखता और सुनता है और मूक दर्शक तथा श्रोता की भांति अनुभव मात्र करता है, जबकि लेखक अपने भावों और विचारों को तूलिका की सहायता से लिपिबद्ध कर समाज के समक्ष प्रस्तुत करता है। रोम्यां रोलां का कथन है-"जिसे अन्याय को देखकर क्रोध नहीं आता, वह कलाकार है, अपितु वह मनुष्य भी नहीं है।"

साहित्य, साहित्यकार के विचारों की अभिव्यक्ति है। हमारे जीवन और समाज का दर्पण है। कहने का भाव है कि जैसा समाज होगा वैसा साहित्य होगा, जैसा साहित्य होगा वैसा समाज होगा। जैसे कालिदास, मोहन राकेश, बिहारी, प्रेमचन्द आदि विद्वानों के साहित्य में हमें उस समय के सामाजिक, राजनीतिक और समसामयिक जीवन का यथार्थ स्वरूप अपने साहित्य में संजोया है।

प्रत्येक साहित्य के लिए यह बात सर्वथा सार्थक है कि वह समाज की विचारधारा से अलग चलकर, भिन्न राग अलापकर समाज में सम्मान नहीं पा सकता। समाज के साथ स्वर-में-स्वर मिलाकर चलना और उसे अपनी ओर आकृष्ट करके ही वह समाज में सम्मान पाने योग्य होता है। डॉ. विजयेन्द्र स्नातक लिखते हैं-"हिन्दी के साहित्यकारों में मुंशी प्रेमचन्द्र को हम उच्च कोटि का समर्थ कलाकार मानते हैं। 


उनकी रचनाओं में भी प्रायः तत्कालीन भारतीय समाज के साथ राजनीति का वर्णन ही मुख्य रूप से पाया जाता है। जिन समस्याओं को प्रेमचन्द्र ने चित्रित किया है, उनका सीधा सम्बन्ध सामाजिक वैषम्य तथा भारत की पराधीनता से है। 

मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, रामधारी सिंह दिनकर आदि राष्ट्रीय कवियों के सामने भी राजनीति और अर्थनीति के प्रश्न रहे हैं।"


भारत विश्व  के  प्राचीनतम् राष्ट्रों में से एक है। यहाँ प्राचीन साहित्य विशाल और विस्तृत है। ज्ञान-राशि का अनन्त भंडार यहां पाया जाता है। हमारे साहित्य में और विश्व-साहित्य में भी ज्ञान-विज्ञान के नए-नए तत्वों का प्रवेश जारी है। 


ऐसे में साहित्यकार का दायित्व बनता है कि वह नवीन-प्राचीन ज्ञान भंडार को अपने साहित्य में स्थान दे। साहित्यकार यदि इस महान् दायित्व का निर्वाह करेगा तो देश को प्रगति की ओर ले जाएगा। यदि वह अपने इस उत्तरदायित्व का वहन नहीं करेगा, तो उसका साहित्य तोता-मैना की कहानी बनकर रह जाएगा। 


अपने देशवासियों की अवज्ञा करके वह सफल साहित्यकारों की श्रेणी में खड़ा नहीं हो सकता। कवि के भाव जब कविता के रूप में फूटते हैं तो वह काव्य का रूप धारण कर लेते हैं। विद्वान साहित्य को समाज का दर्पण इसलिए स्वीकार करते हैं क्योंकि उसमें प्रत्येक युग का राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक आदि परिस्थितियों का प्रतिबिम्ब विद्यमान होता है। लेखक अपने युग की सभी सामाजिक बुराइयों और अच्छाइयों का पूर्ण प्रतिनिधित्व करता है।


साहित्यकार भी एक मानव है। वह भी समाज में रहता है और विकास करता है। वह उस परिवेश को छोड़कर कहीं भी नहीं जा पाता। इसका अर्थ यह नहीं कि वह एक विवश प्राणी है। साहित्यकार में एक ऐसी दिव्य शक्ति है जो अपने परिवेश को नवीनत्व प्रदान कर सकता है। वह उस विश्वामित्र की तरह है जो पृथ्वी पर स्वर्ग रचने की क्षमता रखता है।


इतिहास साक्षी है कि साहित्यकार ने प्रत्येक युग में अपने कर्तव्य का निर्वाह ठीक से किया है। यदि साहित्यकार पाठक के मर्म पर प्रहार करने में समर्थ हो जाता है तो उसका साहित्य राष्ट्र के लिए अमूल्य धरोहर बन जाता है।
संसार में साहित्यकार ही एक ऐसा प्राणी है जो किसी के पीछे नहीं चलता अपितु संदेश लेकर आगे-आगे चलता है। इस महान् उत्तरदायित्व का वहन करते हुए वह समाज का मार्गदर्शन करता है। सच्चा साहित्यकार वह कहलाता है जो मन, वचन और कर्म से तपस्वी हो, साधक हो। उसका जीवन एक दीपक की भांति है जो स्वयं जलकर दूसरों को आलोकित करता है। 


ज्ञान के प्रकाश का उजियारा घर-घर पहुंचाता है। मुंशी प्रेमचन्द के मतानुसार-"साहित्यकार को आदर्शवादी होना चाहिए। जब तक हम साहित्य-सेवी इस आदर्श तक नहीं पहुंचेंगे तब तक हमारे साहित्य से मंगल की आशा नहीं की जा सकती।"


जब साहित्यकार अपने चारों ओर भयंकर भ्रष्टाचार, घुटन, बेरोजगारी, आतंकवाद, हत्या आदि का तांडव देखता है तो वह समाज उद्धार के लिए कमर कस लेता है। अपने लेखों द्वारा जनता में जागृति लाने की चेष्टा करता है। इस कार्य में कई बार वह सफल भी हो जाता है और कई बार राजनीतिक कारणों से हथियार भी डाल देता है। अपने समय का यथार्थ चित्रण करते हुए भविष्य के प्रति भी सचेत रहता है। 


वह जो कुछ विचार करता है उसे जनसाधारण तक पहुंचा देता है। यह जनता की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह उसे किस रूप में स्वीकार करती है। साहित्यकार यदि केवल मनोरंजन के लिए रचना करता है, और कला-कला के लिए है' ही भावना से ओतप्रोत होकर लिखता है तो वह साहित्य जीवंत नहीं होता। साहित्य में यदि जीवन की वास्तविकता न हो तो वह साहित्य की नहीं है। इसलिए तो मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए।

उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए। साहित्यकार केवल देश-काल की परिस्थितियों से ही प्रभावित नहीं होता, उसे विश्व में घटित होने वाली घटनाएं भी प्रभावित करती हैं। जब भी वह कहीं भीषण नरसंहार देखता है तो वह रो उठता है और उसका क्रन्दन समाचार-पत्रों द्वारा हम तक पहुंचता है। 

जब हिरोशिमा और नागासाकी पर 1945 में अमेरिका ने बम डाले तो उसने अपना विरोध दिखाया, जब भारत में भोपाल गैस कांड में नरसंहार हुआ तो उसमें सम्पादकीय लेखों द्वारा जनता का ध्यान अपनी ओर खींचा। सामाजिक कुरीतियों को भी समाप्त करने में साहित्यकार का बहुत बड़ा योगदान है। जब गुजरात की रूपकंवर को उसके पति के साथ जिंदा जला दिया गया तो सभी समाचार-पत्रों ने एक महीने तक इसका कड़ा विरोध किया। नारी मुक्ति के लिए साहित्यकार समय-समय पर अपनी आवाज़ उठाता रहा है, और कहता है

"मुक्त करो नारी को मानव,
युग युग की कारावास से।"

 साहित्यकार जब भी कुछ भी लिखे जनता तक पहुंचाने से पहले वह स्वयं उसका सूक्ष्मावलोकन कर ले, क्योंकि वह जो कुछ लिखता है उसे समाज का प्रत्येक बुद्धिजीवी पढ़ता है। उसे किसी के धर्म पर प्रहार करने वाला साहित्य नहीं लिखना चाहिए। जैसे सलमान रुशदी ने अपनी दुस्तक 'दि सैटेनिक वर्सेज' में विवादास्पद सामग्री प्रस्तुत की।
साहित्यकार समाज का यथार्थ प्रस्तुत करने वाला सामाजिक प्राणी है। वह आने वाले कल को तो सुधारने के लिए प्रयत्नरत है, साथ ही कल के लिए सुन्दर सपना भी 'आज' ही दे देता है।

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