संस्कृति और समाज | Hindi Essay on Sanskriti aur Samaj
नमस्कार दोस्तों आज हम संस्कृति और समाज इस विषय पर निबंध जानेंगे। सरकार की प्रस्तावित सांस्कृतिक नीति पर कई बार बहस-विमर्श चला था। चूंकि विकास प्रयासों में सांस्कृतिक आधार को अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता भी मिल गयी थी। ऐसी स्थिति में विकास के सिद्धान्त को संस्कृति के संदर्भ में पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता समझी गयी।
यह बड़े खेद का प्रसंग है कि बीते चार दशकों में राष्ट्रीय विकास कार्यों पर छः सौ हजार करोड रुपये खर्च किये गये, किन्तु संस्कृति का विकास पर वार्षिक व्यय करीब 0.11% ही रहा। संस्कृति से मानवीय समाज के वास्तविक व नैसर्गिक जुड़ाव को देखते हुए वैसी नीति निर्माण की अनुशंसा की गयी जो
आम जनता को अभिव्यक्ति व ग्राह्यता के महत्वपूर्ण व अधिकाधिक अवसर प्रदान कर सकें। तात्पर्य यह है कि देश की अधिकाधिक आबादी सांस्कृतिक कार्यकलापों में शामिल हो सकें। इसका मूलतः यही उद्देश्य रहा है कि बहुसंस्कृतिक एकाधिक विचारधाराओं, विभिन्न जीवन पद्धतियों, विभिन्न आस्थाओं, मूल्य-आदर्शों का एक ही परिवृत्त में समायोजन है।
भारत में मानवीय समूह अपनी जटिल भावनाओं, विश्वासों एवं व्यवहार प्रकारों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व धार्मिक संगठनों से संयुक्त करने में आस्थावान रहा है। संस्कृति का उद्भव यहीं से हुआ है।
इस प्रसंग पर वैश्विक बहस छिड़ने की स्थिति में हम शुरू से अग्रणी रहे हैं। क्योंकि मानव रूप में विभिन्न मानवीय समूहों का विकास हुआ, तब इस प्राणी की शारीरिक-मानसिक आवश्यकताओं तथा चेतनाओं में एक साम्य था।
यह अब स्पष्ट हो चुका है कि हमारी तत्कालीन आवश्यकताओं तथा अनुभवों में जो भिन्नता थी उसने संस्कृतियों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान की थी। इन्हीं भिन्नताओं से संस्कृतियों में पारस्परिक असमानताएँ तथा अंतर दृष्टिगत होते गये।
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि संस्कृति पर चल रही समसामयिक बहस अपना ठोस वैचारिक आधार क्यों नहीं खोज पाती। हाँ, हमारी बहस में तार्किक कसाव का नितांत अभाव खटकता है। भावात्मक आवेश मूल मुद्दे से हमें दूर धकेलता है।
राष्ट्रीय संस्कृति नीति के निर्माण पर शोर मचाने या चिंतन करने वाले आखिरकार चाहते क्या हैं? संस्कृति के किस स्वरूप की उन्होंने परिकल्पना की है? आरोप है कि वे इस पारम्परिक संस्कृति को विकास व प्रगति का अवरोधक मानते हैं। वे निरन्तर सांस्थानिक और मूल्यात्मक परिवर्तन की अपेक्षा रखते हैं।
दूसरी ओर, एक दूसरे समूह की यह दलील है कि संस्कृति के प्रवाह में व्यापक परिवर्तन की अपेक्षा रखने वाले संस्कृति के मूलभूत चरित्र के प्रति सतर्क नहीं है। उन्होंने सृजनात्मक ऊर्जा की ओर ध्यान ही नहीं दिया।
संस्कृतिवादियों के इस दूसरे वर्ग पर कई गम्भीर सटीक व गत्यात्मकता के समक्ष नहीं हैं। वे परम्परा और मूल्य से चिपके रहना जानते हैं। परम्परा और प्रगति को लेकर उपजे इन समूहों में व्यापक तौर से वैचारिक मतभेद है। इसी वजह से संस्कृति में ही विकृतियाँ दिखने लगती हैं।
यह कितना सच होता है निश्चित कर पाना सहज नहीं होता। लेकिन बहस-विमर्श से जो तथ्य छनकर हमारे सामने आते हैं वे अतीत के महत्व को समझाते हैं। अतीत कभी लौटता नहीं किन्तु वह प्रच्छन्न रूप से वर्तमान को प्रभावित करता है।
संस्कृति के स्वरूप के चिन्तन की अभिव्यक्ति भ्रामक रही है। क्योंकि हमारे बहस का शिल्प वास्तव में अभिजात संस्कृति और लोक-संस्कृति के धरातल पर गढ़ा जाता रहा है। अतः वाद-विवाद की प्रक्रिया जारी होते हुए भी उसकी परिधि समान नहीं होती।
दोनों की समझ शैली व शिल्प में व्यापक अंतर है। अतः राष्ट्रीय संस्कृति नीति की बातें बेमानी हो जाती हैं, यह पता नहीं चल पाता कि देश में तेजी से उभरते संस्कृति प्रेमियों का सचेत व सक्रिय समूह अपने दृष्टिकोणों को आग्रहपूर्वक प्रस्तुत करने के बजाय समाज पर थोपना क्यों चाहता है।
संस्कृतिवादियों का वैचारिक मतभेद किसी भी निष्कर्ष विशेष तक पहुँच पाने में आज तक सामर्थ्यहीन रहा है। हालांकि यूनेस्को की ‘अन्तर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक विकास दशाब्दी समिति' में संस्कृति के सम्बन्ध में खुलकर लिखा गया है।
सबसे पहले विकास शब्द के दर्शन और विचार के संदर्भ में संस्कृति के संदर्भ के पुनर्परिभाषित किया गया है। बहुसांस्कृतिक एकाधिक विचारधाराओं, विभिन्न जीवन पद्धतियों, विभिन्न आस्थाओं तथा मूल्यों के समायोजन से विभिन्न समुदायों के चरम लक्ष्य-प्राप्ति की संभावनाओं की आशा रिपोर्ट में है।
यह आधुनिकीकरण को मशीनीकरण से नहीं जोड़ता बल्कि विकास के सिद्धान्त को संस्कृति के संदर्भ में देखता है। स्थानीय प्रासंगिकता, भौगोलिक प्रासंगिकता, पर्यावरण तत्व, ऐतिहासिक परम्परा, परम्परागत ज्ञान तथा कौशल के सांस्कृतिक नीति से संयोजित करने की सलाह इस रिपोर्ट में दी गई है।
दूसरे शब्दों में, यही लक्ष्य भी माना गया है, हमारे नीति नियंताओं ने अपने पवित्र उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए घोषणा की कि एक ऐसी नीति का निर्माण किया जा रहा है जो अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा कर सके, ताकि इन स्थितियों में अधिकतर भारतीय जनता सांस्कृतिक कार्यकलापों में शामिल होकर स्वयं को अधिक संतुष्टि के साथ अभिव्यक्त कर सके।
संस्कृति की प्रगति और विकास में राज्य की भूमिका मात्र एक उत्प्रेरक के रूप में तय की गयी। विश्वभर के विचारों दृष्टियों, दर्शन, शिल्प को अनवरत संवाद के जरिए छोड़कर सर्वव्यापी बनाये जाने के प्रयास जैसी बातें भी की गयीं।
देश की सांस्कृतिक परम्परा का निर्वाह शिक्षा के माध्यम से ही, सांस्कृतिक नीति अखिल भारतीय परम्पराओं, एशिया की परम्पराओं तथा आधुनिकता के बीच गत्यात्मक सम्बंधों के मूल्यांकन को प्रोत्साहन देने का प्रयास किया जाये। इनके अलावा, ग्रामीण जनजातीय एवं सामुदायिक सांस्कृतिक परम्पराओं के सारे तत्वों को सुरक्षित रखे जाने के प्रयास किये जायेंगे।
इन संकल्पों के अलावा नव सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के संरक्षण के भी वायदे हमारे नीति निर्माताओं द्वारा किये गये। सवाल यह है कि संस्कृति के संरक्षण व संवर्द्धन के लिये राजकीय प्रयास की जरूरत है क्योंकि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस सम्बंध में जो संकल्प लिये जा रहे हैं उनमें व्यापक विरोधाभास है-बल्कि अपनी जीवंत संस्कृति में अंतर्विरोध है, भटकाव है, टकराव है।
इन्हें समझ लेना इतना सहज नहीं कि आप एक राष्ट्रीय सांस्कृतिक नीति को अमली जामा पहना सकें और ऐसा कर आप समझ भी जायें। इसकी गारण्टी आप या हम या कोई मानवशास्त्री भी नहीं दे सकता।
समूची भारतीय संस्कृति के लिये एक नीति और परिषद् के गठन की जिज्ञासा प्रख्यात समाजशास्त्री प्रो० श्यामाचरण दूबे के समक्ष प्रस्तुत हुई थी। यह तो आम उद्गार है कि संस्कृति के मुद्दे पर सरकार के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं हो।
श्री दुबे ने सरकार के हस्तक्षेप पर अपने विचार नहीं रखे बल्कि उन्होंने समाज के विभिन्न अवयवों में उत्तरदायित्व का निर्धारण अवश्य किया। ‘अपना समाज एवं संस्कृति' अब संस्कृति और प्रति संस्कृति से जूझ रहा है। हालांकि अपसंस्कृतियाँ हर युग में पैदा होती रही हैं, किन्तु उनमें से कुछ का निराकरण हुआ और कुछेक पर नियंत्रण भी।
व्यक्ति और समूह की मानसिकता और मनोवृत्तियाँ संस्कृति द्वारा निर्मित होती हैं। वे संस्कृति के आधार और उसके केन्द्रीय मूल्यों को प्रभावित करती हैं।
आज विकृतियों को भयंकर विस्तार मिल रहा है। उपभोक्तावाद और यौन-लिप्सा तो नियन्त्रण से परे भोगवाद का रूप ले चुका है। हम अपने सांस्कृतिक मूल्यों से छिटक कर विद्या तक सांस्कृतिक प्रवृत्तियों को अपना रहे हैं।
इसने संकट का रूप ले लिया है। सचमुच परम्परा की चिन्ता भला किसे है। समाज को सांस्कृतिक परम्पराएँ अगली पीढ़ी को विरासत में मिलती हैं। ऐसा मैलिनोस्की से लेकर लूसी मेयर तक मानते हैं। लेवी स्ट्रॉस इसे सामाजिक संरचना का आधार मानते हैं।
एक ओर हम अपनी संस्कृति के कौमार्य रक्षण की बातें करते हैं और दूसरी ओर केबिल टी०वी० के पसरते संजाल की अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा करते हैं। यह बड़े शर्म की बात है। इस समूचे प्रकरण में सियासत का स्वार्थ ज्यादा दिखता है। इन्होंने पहले सामाजिक, धार्मिक भावनाओं को भड़काया और अब संस्कृति को जगाना चाहते हैं।
आज हम स्वयं देखें कि अपनी संस्कृति का स्वरूप कैसा है? हमारी सोच, द्रष्टि, भविष्य की योजना, महत्वाकांक्षाएँ, मनोरंजन के विभिन्न साधन संस्कृति के हत्यारे हैं। उपभोक्तावादी वृत्तियाँ मानव-मन में जहर घोल रही हैं। दृश्य माध्यम की पहुँच अब सुदूरवर्ती क्षेत्रों में भी है।
अतिरंजिता, हिंसा, वीभत्स, शृंगार, कलाहीन गीत-संगीत, अश्लील दृश्यों ने समाज के पर्यावरण को दूषित किया है। यह सब सांस्कृतिक परम्परा की उपेक्षा है। संस्कृति के ऐसे भद्दे स्वरूप को प्रक्षेपित किया जा रहा है जो समाज में चिंतन की प्रेरणा पैदा नहीं कर सकता।
हमने साहित्य, नाटक, लोक-संस्कृति, कलाओं, नृत्यों आदि को तमाशा बना दिया। पूरे देश में सांस्कृतिक अस्मिता को लेकर संघर्ष है। उनके ताजा घाव पर हम राजनीतिक चिंतन व जोड़-तोड़ का मरहम लगा रहे हैं। आदिवासी शोषित हैं।
देश में हजारों आदिवासी बच्चे भूखे मर रहे हैं, यौनपिपासा की भेंट चढ़ाकर बाजार में बेची जा रही हैं, दूसरी रोगग्रस्त होकर मरती हैं, जीवन पहले नक्सली घोषित किया जाता है और बाद में पुलिस मुठभेड़ में मारा जाता है।
भारत मुक्त विचारों वाला देश है। प्रत्येक समाज की अपनी रीतियों का महत्व है। कोई भी सामाजिक व्यवस्था या संस्कृति समाज के प्रयत्नों से संरक्षित या परिवर्तित नहीं होती। राजकीय प्रयत्न तो इस बारे में बड़ा घातक होता है।
परिवर्तनों के प्रणेता यदि बाहर से आते हैं, वे हमारी मूलभूत संस्कृति पर आघात करते हैं तो हम समायोजन भी कर लेते हैं या प्रतिरक्षा की परिस्थितियाँ सृजित करते हैं। समाज अपने दीर्घकालिक हितों को पहचानता है। संस्कृति पर हमलों की परम्परा तो शुरू से रही है इसके बावजूद अपनी संस्कृति अक्षुण्ण है।
जरूरी यही है कि पहले सियासत के बाजीगर राष्ट्रीय राजनीति को संस्कारनिष्ठ बनायें। उन्हें परिमार्जित करें, उन्हें दुलेक्षित होने से बचायें।
ललित कलाओं, लोक कलाओं, ऐतिहासिक धरोहर तो स्थानीय जन-समुदाय बचा लेगा। सरकार मात्र इन्हें शोषित न होने दे। अंततः लोक कलाओं का मेला सम्बंधित संस्कृति को तमाशा बना देता है, कला और कलाकार इन दोनों की बड़ी हास्यस्पद स्थिति हो जाती है। इन्हें हम 'माल' नहीं बनायें।
बल्कि जहाँ संस्कृति फलफूल रही है, हम उन्हें वहीं प्रोत्साहित करें। दुर्भाग्य से हमारे नीति-नियंताओं और राजनेताओं को ये सारी बातें समझ में नहीं आतीं। सत्ता संस्कृति और समाज के बीच जब तक स्पष्ट व स्वच्छ सम्बन्ध स्थापित नहीं होते तब तक संस्कृति के संरक्षण की बातें पूर्णतः बेमानी है। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।