नारी शिक्षा का महत्व हिंदी निबंध | Importance of Women education in Hindi.

 

 नारी शिक्षा का महत्व हिंदी निबंध | Importance of Women education in Hindi.


नमस्कार  दोस्तों आज हम नारी शिक्षा का महत्व इस विषय पर निबंध जानेंगे।भूमिका-मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। यह प्रत्येक कार्य को समाज का ध्यान रखकर करता है। मनुष्य समाज के प्रत्येक नागरिक सुख और आनन्द चाहता है। ये सुख और आनन्द भौतिक या शारीरिक तथा मानसिक अनुभूतियों से सम्बन्ध रखते हैं। 


इनको प्राप्त करने के और भी साधन हैं किन्तु शिक्षा ही सबसे अधिक आवश्यक है। समाज में स्त्री और पुरुष दोनों का ही स्थान लगभग एक जैसा ही है अतः शिक्षा की आवश्यकता दोनों के लिए एकसमान ही होती है। समाज के स्वस्थ विकास में स्त्रियों का महत्वपूर्ण भाग उत्तरदायित्व है। 


वे शिक्षित होकर अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह अधिक सफलतापूर्वक कर सकती हैं। स्त्रियों की अशिक्षा का प्रभाव हमारे समाज पर कभी भी अच्छा नहीं पड़ता। अतः स्त्री को शिक्षा की अति आवश्यकता होती है। ये देखना है कि स्त्री शिक्षा का कौन-सा रूप समाज और व्यक्ति के लिए अत्यन्त श्रेष्ठ होगा।


स्त्री-शिक्षा की आवश्यकताओं का महत्व जीवन रथ की तरह दो चक्र हैं-स्त्री और पुरुष और धुरा है उनके जीवन में चलने वाला प्रेम। उनके विचार और उनके योग्य जोड़े के मिलने में मानव-जीवन की एक वास्तविक सफलता है। पुरुषों की तरह उन्हें भी शिक्षा में उनकी तरह होना चाहिए। 


यदि स्त्री-पढ़ी लिखी होती है तो वह अपने पति के कार्यों में उसका हाथ बंटा सकती है। इसलिए स्त्रियों का शिक्षित होना अति आवश्यक होता है। शिक्षित स्त्रियाँ अपने बच्चों का लालन-पोषण बड़े सुन्दर ढंग से करती है। इससे बच्चों में बचपन से ही उन्हें अच्छे संस्कार मिलते हैं। इसलिए भी स्त्रिी का शिक्षित होना आवश्यक है।


समाज में स्त्रियों का एक महत्वपूर्ण स्थान होता है उन्हें सम्मानित जीवन व्यतीत करने के काबिल होना ही चाहिए ताकि आवश्यकता पड़ने पर उन्हें निराश न होना पड़े--और उनमें उनका आत्मविश्वास बना रहना चाहिए, ताकि उनमें उचित शक्ति का विकास जल्द ही हो सके। इसीलिये स्त्री की शिक्षा आवश्यक है। 


सामाजिक रहन-सहन का स्तर ऊँचा होने में स्त्रियों का अधिक योगदान है। ये शिक्षित होंगी तो रहन-सहन को ऊपर उठाने में वह सुन्दर सहयोग दे सकेंगी। इसीलिए उनकी शिक्षा आवश्यक है। स्त्री की शिक्षा का रूप-स्त्रियों को शिक्षा का पाठ्यक्रम निर्धारित करने के पूर्व मूल सिद्धान्त बनाना आवश्यक है। पहले यह विचार कर लेना चाहिए कि स्त्री को क्या बनाना है? 


यदि स्त्रियों को पुरुषों की तरह स्वतन्त्र बनकर पुरुषों के समान चलना है, तब तो उनकी शिक्षा का पाठ्यक्रम भी वही रहेगा, जो लड़कों के लिये है, इससे शिक्षा-प्रणाली में शिक्षित लड़कियों से उतना ही पाएगा. जितना आधनिक-शिक्षा प्राप्त कर लिए व्यक्ति से पाते हैं। 


वर्तमान शिक्षा प्राप्त व्यक्ति अपने घर में विदेशी जैसा बनकर रहता है। जब तक वह घर में रहता है तब तक उसकी दयनीय दशा बनी रहती है। किसी भी कार्य में उसका योगदान लाभ नहीं पहुंचा पाता। हर व्यक्ति को उसके दुर्भाग्य पर तरस आता है। उसके लिए कुछ ज्यादा ही करूणा दिखाता है। उसके पश्चात् उसका मन सदैव दुःखी रहता है।


वह कभी भी आनन्द की और शान्ति की सांस नहीं ले पाता। ऐसी स्थिति में या तो वह भयंकर रोग का शिकार हो जाता है या तो अपने वो संसार के लिए किसी भी कार्य के लिए नहीं मानता और अपने उच्च स्वाभिमान के कारण आत्महत्या कर बैठता है। यही दशा वर्तमान शिक्षा प्रणाली में शिक्षित महिलाओं की भी हो सकती है। 


यह स्थिति अधिक नहीं चल पाएगी कि इन, स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालियों में ऊँची शिक्षा प्राप्त करके महिलायें सफल हो गई हैं। एक वक्त भविष्य में ऐसा आएगा कि उनके लिए भी नौकरी की समस्या उसी पर जटिल हो जाएगी जिस प्रकार पुरुषों के लिये है। यह शिक्षा उन्हें एक कुशल गृहिणी और लक्ष्मी के रूप में बन जाएगी, किन्तु कुछ स्त्रियाँ तो पुरुषों की तरह ही चलने का प्रयास करेंगी।


इसका एक परिणाम यह होगा कि सारा भारतीय समाज ढाँचा की तरह लड़खड़ा जायेगा। दूसरा सिद्धान्त-नारियों को भारत में घर की लक्ष्मी और गृहस्वामिनी बनना है। भारत की नारी को क्लर्क बनने की शिक्षा प्रदान नहीं करनी चाहिए, बल्कि उसे घर की लक्ष्मी प्रदान करने की शिक्षा देनी चाहिए।


भारतीय नारियों का शिक्षा का पाठ्यक्रम एकदम अलग होना चाहिए ताकि वे पूषों की पूरक बन सकें और जीवन में सफलता ला सकें। इसके लिए उनके पाठ्यक्रम में ऐसी बातें पढ़ाई जानी चाहिए जिससे वह गृह-कार्य में सफलता पा सकें। परिवार को मधुर प्रेम से स्वर्ग बना दें। इस प्रकार पाठ्यक्रम में नारी धर्म, नैतिकता, सदाचार, निष्ठा आदि का स्थान महत्वपूर्ण होता है।


इससे उनमें विवाद के लिये अधिक ज्ञान नहीं होगा और जीवन को सुखी और आनन्द बनाने में वह अधिक सफल होंगी। वे अपने पतियों से सहयोग पूर्वक व्यवहार करेंगी। उनमें धर्म के लिये और संस्कृति के प्रति आस्था बढ़ेगी। वे अपने घरो में ऐसा वातावरण बनायेंगी, जो घर को स्वर्ग जैसा बना सके। 


उनकी आवश्यकताएँ सीमित और सरल बनेंगी। जिससे उनके जीवन में सीधा-सादा आनन्द प्राप्त होगा। इसका यह परिणाम होगा कि पुरुष की निरंकुशता और असंयम भी सीमित हो जाएगा। इससे जीवन में अमूल्य वातावरण आवश्यक होगा। ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि प्राचीन काल में भारतीय देवियों की शिक्षा का रूप पुरुषों की शिक्षा की पद्धति से अलग था। उस समय भी अपवाद अवश्य रहे होंगे इसमें कोई शक नहीं है।


आध्यात्मिक सुख के माध्यम से भौतिक सुख प्राप्त करना-आज का मनुष्य भले ही यह विश्वास कर ले कि पति-पत्नी दोनों की ही कमाई से परिवारिक आय में वृद्धि होगी और जीवन की सुख की सामग्री खरीदनी अधिक सरल होगी, परन्तु यह भी ध्यान रखना होगा कि जनसंख्या की वृद्धि में नारियों का स्थान बढ़ाया नहीं जा सकता और आगे बढ़ी हुई शिक्षित जनसंख्या नौकरियों के लिये मारी-मारी फिरेगी।


अभी तो पुरुषों की ही यही दुर्दशा है फिर स्त्रियों के लिये भी इस समस्या का समाधान करना आवश्यक हो जायेगा। पति-पत्नी दोनों अपने दफ्तर के कार्यों में परेशान रहेंगे। जब दोनों बाहर के कार्यों में व्यस्त रहेंगे तो घर के कार्यों को कौन पूरा करेगा, यदि परिवार में सुख की प्राप्ति नहीं होगी तो शिक्षा व्यर्थ है।


उपसंहार-इस प्रकार स्त्रियों की शिक्षा है तो आवश्यक लेकिन वर्तमान रूप में नहीं। उसका रूप और पाठ्यक्रम सभी कुछ परिवर्तित होना आवश्यक है तथा इसके लिये मूल सिद्धान्त का बदलना भी आवश्यक है।दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।