भारतीय कृषक पर हिंदी निबंध |Indian Farmer in Hindi

 

भारतीय कृषक पर हिंदी निबंध |Indian Farmer in Hindi


 नमस्कार  दोस्तों आज हम भारतीय कृषक इस विषय पर निबंध जानेंगे। इस लेख मे कुल २ निबंध दिये गये हे जिन्‍हे आप एक -एक करके पढ सकते हे ।  भूमिका-भारत गाँवों का देश है। उनमें जो अधिक शक्तिशाली और बुद्धिमान होते थे, उनका एक समुदाय बन जाता था। वे गाँव की रक्षा करते थे और सामान्य ग्रामीणों से स्वयं की सेवायें भी करा लेते थे। क्रमशः उनका प्रभाव आस-पास के गाँवों पर भी पड़ने लगा।


इस क्रमिक विकास ने राज्य का रूप धारण कर लिया और उसका स्वामी राजा कहा जाने लगा। उसके रहन-सहन का स्तर भी साधारण लोगों से ऊँचा हो गया। फिर छोटे-छोटे गाँव अपनी स्थिति के अनुसार बड़े-बड़े नगरों में बदलने लगे। इस तरह गाँव और नगर एक-दूसरे से भिन्न हो गए। 


कृषि करने वाले कृषक अपनी योग्यता के अनुसार गाँवों में रहने लगे। उनकी जीवनचर्या भी नगरों के लोगों से भिन्न होती है। इस प्रकार से किसानों का जीवन एक ही दिशा में रहने लगा। भारतवर्ष में कृषि व्यवस्था प्रमुख थी। अधिकांश लोगों का जीवन खेती पर ही निर्भर था। आज भी भारत कृषि-प्रधान देश कहा जाता है। भारत का वास्तविक चित्र गाँवों में झलकता है, जहाँ पर अधिकांश जनता किसान है।


भारतीय कृषक की रूपरेखा या दिनचर्या अपनी पुरानी अथवा प्राचीन परम्पराओं से लिपटा सीधा-सादा, अर्द्धशिक्षित, अर्द्धनग्न, भारतीय किसान प्रातःकाल से सायंकाल तक अपनी खेती के कार्य में लगा रहता है। दोपहर को लगभग घण्टा भर वह भोजन करने व विश्राम में लगाता है। 


उसके कार्य विभिन्न प्रकार के होते हैं। वह अपने बैलों और पशुओं के प्रति चिन्तित रहता है। उसके बच्चे तथा परिवार के सभी सदस्य भी अपनी शक्ति के अनुसार उसके काम में सहायता करते हैं। बैल ही प्रायः उसके साथी और सहायक होते हैं। परस्पर व्यवहार में वह स्पष्टवादी होता है। वह अपनी बात को स्पष्ट रूप से कहता है। वृक्षों की शीतल छाया में वायु के मन्द-तेज प्रवाह में उसकी अधिकांश ग्रीष्म ऋतु कटती है।


खेतों में भाग-भाग काम करते हुए उसकी बरसात कटती है। जाड़ा सभी को ठुठरा देता है। जड़ पदार्थ भी ठण्ड से ठिठुर जाते हैं। उस स्थिति में उसकी रक्षा के साधन भी सरल व सस्ते होते हैं। साधारणतया वह पुआल बिछाकर ऊपर से गन्दी चादर या गुदड़ी डालकर सो लेता है-और ओढ़ने के नाम पर केवल एक कम्बल या फटी-पुरानी रजाई से काम चला लेता है। 


घर में द्वार पर आग का प्रबन्ध नित्य होता है। आग के सहारे ही वह कठोर जाड़े को सफलतापूर्वक पराजित कर स्वयं विजयी हो जाता है। इस समय यदि उसे भोजन सामग्री का अभाव होता है तो गन्ने का रस, शकरकन्द, मक्का का दाना या मटर की कच्ची फलियां आदि से अपनी भोजन की समस्या का समाधान करता है। 


उसका स्वास्थ्य भी साधारण होता है। वह बेईमानी और अन्याय से डरता है, परन्तु अपनी छोटी-सी वस्तु भी वह भरसक छोड़ना नहीं चाहता। चूंकि उसमें विवेक-बुद्धि की कमी होती है। कभी-कभी तो साधारण-सी बात पर झगड़ा और मारपीट कर डालता है। 


मुकदमा और कचहरी उसके सबसे बड़े शत्रु हैं। कचहरी में उचित-अनुचित सैकड़ों रुपए खर्च कर देता है। पटवारी और पुलिस उससे अवसर मिलते ही पैसे ले लेते हैं, लेकिन वह बेचारा स्वयं पाव भर सत्तू या दो पैसे के गुड़ पर दिन काट लेता है। शहर में यदि किसी कारणवश रुकना पड़ता है तो वह किसी छोटी-सी दुकान पर रोटी खाकर जमीन पर सो जाता है। इसी प्रकार से वह अपना जीवन व्यतीत करता है। 


यदि कोई वायुयान उसके खेत के ऊपर से घरघराता हुआ गुजरता है तो वह आश्चर्य से थोड़ी देर तक देखकर पुनः अपने काम में लग जाता है। सप्ताह में एक दिन बाजार में जाकर वह अपना नमक, तेल, कपड़ा वगैरह खरीद लाता है। 


बस यही उसकी साधारण सी रूपरेखा है। जूता तथा साफ कपड़े तो वह कहीं बारात या रिश्तेदारों के यहां पर जाने के समय ही पहन पाता है। यदि उसके पास अपना सामान नहीं होता है तो वह मांगने में भी हिचकिचाता नहीं है। परिवार में वह शान्ति बनाए रखने का प्रयास करता है। 


भोजन के विषय में सामान्तयाः वह स्वावलम्बी होता है। उसकी गायें और भैसें दूध देती हैं जिनका प्रयोग घर के सदस्य व बच्चे करते हैं। कभी-कभी बीमार हो जाने पर वह हकीम अथवा वैद्य के पास चला जाता है, कभी देवी-देवताओं की पूजा में उपस्थित होता है।


दूध का स्वाद वह कभी-कभी ही ले पाता है। सामाजिक दिनचर्या में पशुओं को चारा-पानी कराना, खेती की देख-रेख करना, घर-द्वार ठीक रखना है। भारतीय किसान की विशेषतायें-भारतीय किसान में स्वाभाविक रूप से उदारता तथा सरलता विद्यमान रहती है।


बनावट, सिंगार के लिए न तो उसे समय मिल पाता है और न ही कोई साधन होता है। मोटा अनाज और असाधारण वस्तुओं से वह अपना काम चलाता है। वह केवल मटर खाकर तथा गेहूँ और चावल बेचकर अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। 


वह भी अपनी स्थिति के अनुसार प्रतिष्ठा में उन्नति करने का प्रयास करता है। बड़ों का आदर करना तथा उनकी सेवा करना वह अपना परम कर्त्तव्य समझता है। सहिष्णुता और कठिन परिश्रम उनके स्वभाव में सम्मिलित हो जाते हैं। उसमें धार्मिक भावनायें प्रबल होती हैं और वह ईश्वर से बहुत डरता है।


अतः इसीलिये वह बुराई से अपने को बचा लेता है। परम्पराओं और संस्कारों से उसका घनिष्ठ विश्वास होता है। वह तर्कप्रिय और भावक अधिक होता है। उसमें त्याग तथा अतिथि-सत्कार की भावना अधिक होती है। मोह कम होता है।


भारतीय किसान की दुर्बलतायें भारतीय किसान प्रायः रूढ़िवादी होता है जिससे वह नवीन आविष्कारों से पूरा लाभ नहीं उठा पाता। अपनी खेती को भी वह पुराने ढंग से ही करता रहता है। लोहे का हल चलाना, नये ढंग से बीज बोना, नई खादों और कृषि उपकरणों का प्रयोग करना उसे अच्छा नहीं लगता।


यदि वह थोड़ी-बहुत राजनीति में भाग लेने लगता है तो वह किसानों की उपेक्षा करने लगता है। साधारण कार्यों के लिए वह दिन व्यर्थ में गंवा देता है। सतर्कता के अभाव में उसका जीवन क्रम इस परिवर्तन से पथभ्रष्ट हो जाता है। अशिक्षा उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है।


खेती प्रारम्भ करने के बाद उसकी जो कुछ शिक्षा रहती है वह भी प्रायः समाप्त हो जाती है। दूसरा काम मिलने के कारण उसकी बुद्धि अपने काम में कम ही लगती है, अतः उसका काम अधिक लाभकारी नहीं होता। 


उपसंहार-भारतीय किसान की परम्परा है कि वह अपने खेतों से विशेष मोह रखता है। वह शादी-विवाह में अपनी हैसियत से अधिक व्यय करके कर्जदार बन जाता है। मरनी-करनी में वह पूर्णयता परम्परावादी होता है। जाति-धर्म का वह समर्थक होता है और अपने अन्धविश्वासों को भी बनाये रखना चाहता है।


खेत, खलिहान, बाग-बागीचे, यात्रा में वह सबसे मिल-जुलकर रहता है, परन्तु खाने-पीने और शादी-विवाह में वह कट्टर रूढ़िवादी बन जाता है। इस प्रकार भारतीय किसान की अपनी विशिष्ट विशेषतायें होती हैं। और आगे दिया हुआ दूसरा निबंध पढ़ना मत भूलियेगा धन्यवाद  ।


निबंध 2

भारतीय कृषक पर हिंदी निबंध |Indian Farmer in Hindi


भमिका-भारतवर्ष कृषि-प्रधानदेश है।
यहाँ अधिकांश जनता ग्रामों में रहती है। यहाँ के लोगों का मुख्य धन्धा कृषि है और इस धन्धे से जीवन-निर्वाह करने वाला व्यक्ति कृषक कहलाता है। विश्व का समस्त वैभव, ऊँचे महल, आमोद-प्रमोद सब कुछ कृषक के बलिष्ठ कन्धों पर आश्रित हैं। 


नभ में उड़ने वाले पक्षी, पृथ्वी पर विचरण करने वाला मानव तथा जल में रहने वाले जीव भी कृषकों पर ही आधारित हैं।भारतीय कृषक का परिचय-कृषक वह व्यक्ति है जो कठोर परिश्रम से खेतों में अन्न उपजा कर संसार के सभी प्राणियों की उदर-पूर्ति करता है।



संसार का धनी-से-धनी व्यक्ति भी इसी के सहारे रहता है। भारतीय कृषक का जीवन तपस्वी, अभिमान रहित, उदार तथा दूसरों का हित करने वाला है। वह स्वयं भूखा रहता है पर दूसरों को भूखा नहीं रहने देता। भारतीय किसान की आकृति से ऐसा प्रतीत होता है कि मानो कोई वीतराग सन्यासी हो, जिसे न सम्मान की खुशी है और न ही अपमान का दु:ख।


उसे न फटे कपड़े पहनने का दुःख है और न कभी अच्छे वस्त्र पहनने की लालसा, जिसे न दुःख में दुःख है और न सुख की कामना, जिसे न अज्ञानता से आत्मग्लानि होती है और न दरिद्रता से घृणा। भारतीय कृषक एक साधक है जो अपनी साधना करते हुए कभी सिद्धि की कामना नहीं करता। 



यह वह कर्मयोगी है जो फल प्राप्ति की इच्छा के बिना कर्म करने में तल्लीन रहता है। अतः भारतीय कृषक का छोटा-सा संसार इस संसार से अलग है। कृषक जीवन की कठोरता-भारतीय कृषक का जीवन बहुत ही कठोर तथा कष्ट पूर्ण है। वह बहुत परिश्रमी है। 


वह गर्मी-सर्दी तथा वर्षा की परवाह किए बिना अपने कार्य में जुटा रहता है। जेठ की दोपहरी, वर्षा ऋतु की उमड़ती-घुमड़ती काली मेघ-मालाएँ तथा शीत-ऋतु का हाड़ कंपा देने वाली वायु भी उसे अपने कर्तव्य से रोक नहीं पाती।


जब हम सर्दियों में रजाइयों में दुबके पड़े होते हैं तब किसान कड़कड़ाती जाड़ों की भयानक रात में, गहन अन्धकार में, जंगलों की भयप्रद आवाजों में आगे बढ़ता हुआ अपने खेतों में चला जाता है। भीषण वर्षा में भी वह अपने घर पर नहीं बैठता है। सूर्य के उदय होने से पूर्व ही वह उठ कर अपने खेतों में काम करने चला जाता है। 


जब महानगर के धनाढ्य व्यक्ति कूलर, पंखों तथा वातानुकूलित मकानों में सुख की नींद सो रहा होता है, तब किसान तेज धूप में हल-बैल लिए, नंगे पाँव, नंगे सिर अपने खेत में जाकर काम करता है। जीवन व्यतीत करता है। वह कच्चे मकानों में रहता है तथा सादा भोजन करता है।


वह सामान्यतया घर का बुना हुआ खद्दर पहनता है। वह इतना निर्धन होता है कि अचानक आ जाने वाले छोटे-मोटे खर्चों को भी वहन नहीं कर सकता है। शादी-व्याह का अवसर हो या खेतों में बीज बोने का अवसर हो उसे महाजन से ऊँची ब्याज दर पर ऋण लेना ही पड़ता है। 



इस ऋण को वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी उतार नहीं पाता है। वह प्राय: अशिक्षित रहता है। जिसका अनेक लोग फायदा उठाते हैं। वह समाज के ठेकेदारों के अमानुषिक अत्याचारों को सहते हुए अभावमय जीवन जीता है।



किसान का सच्चा धन-किसान का पशुधन ही सच्चाधन है। वह उसी के पालन-पोषण में लगा रहता है। वह अपने पशुओं को नहलाता है, धुलाता है और फिर अपने हाथों से गाय-भैंस का दूध निकालता है। पशुओं की सेवा ही उसकी सच्ची सेवा है, वही उसकी पूजा है और वही आराधना है। 


बैल ही उसका सच्चा मित्र है जो हर समय उसकी सेवा में तत्पर रहता है। बैल उसके खेत जोतता है। आजकल किसान की स्थिति ऐसी है कि वह अपने पशुओं का स्वयं उपभोग भी नहीं कर सकता। उसे अपनी निर्धनता के कारण घी-दूध तक बेचना पड़ता है।



दिनचर्या-कृषक नित्य प्रति सूर्योदय से पूर्व ही उठता है। तभी वह हल और बैल लेकर अपने खेत में चला जाता है। वहाँ वह हल चलाता है तथा खेतों को पानी देता है। दोपहर को उसकी पत्नी उसके लिए भोजन लाती है जिसे खाकर वह छायादार वृक्ष के नीचे विश्राम करता है।



थोडा विश्राम करने के पश्चात् वह पुनः काम में जुट जाता हैं सूर्यास्त के पश्चात् वह अपने बैलों को लेकर घर लौट आता है। भोजन करके वह चौपाल में चला जाता है। वहाँ किसान भाइयों से मिलकर गपशप हाँकता है तथा हुक्का गुडगुडाता है। इस प्रकार वह अपना सारा दिन हँसी-खुशी व्यतीत करता है।



दशा में सुधार किसानों की दयनीय दशा को देखकर सरकार इनके सुधार के लिए अनेक प्रयास कर रही है। खेती में सुधार के लिए अनेक कार्यक्रम चलाए हैं जैसे चकबन्दी, सहकारी खेती, सस्ते दर पर ऋण उपलब्ध कराना, पानी व बिजली की व्यवस्था करना, अस्पताल व स्कूलों की उचित व्यवस्था करना आदि। 



किसानों को वर्ष में कुछ समय तक बेकार रहना पड़ता था जिससे उनके लिए कुटीर उद्योगों की व्यवस्था की जा रही है। इनके कारण आधुनिक समय में किसान के जीवन-स्तर में कुछ सुधार हुआ और वह अब खुशहाल रहने लगा है।


उपसंहार-भारतीय कृषक अधिकांश रूप से अभी सुसम्पन्न नहीं है। सम्भव है, निकट भविष्य में उनकी स्थिति में कुछ और अधिक सुधार हो क्योंकि सरकार उनकी उन्नति के लिए निरन्तर प्रयत्नशील है। मैथिलीशरण जी ने एक बार लिखा था


“शिक्षा की यदि कमी न होती, तो ये गाँव स्वर्ग बन जाते।" हमें आशा है कि वह समय शीघ्र आएगा जब प्रकृति की गोद में रहने वाला कृषक अपने खेतों को हरा-भरा देखेगा, ऋण के बोझ से उसको छुटकारा मिलेगा। वह अपना जीवन आनन्द से बितायेगा। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।


शब्दार्थ-आमोद-प्रमोद = हंसी-खुशी, राग-रंग; उदर-पूर्ति = पेट भरना; आत्मग्लानि = घृणा; दरिद्रता = गरीबी, कंगाली, निर्धनता; भय प्रद = डरावनी; कर्मयोगी = कर्म करने वाला; वातानुकूलित = एयर कण्डीशन्ड; अभावमय = कमियों से भरा हुआ; अमानुषिक = पैशाचिक, अलौकिक; सूर्योदय = सूर्य का निकलना; दयनीय = शोचनीय; व्यवस्था = इन्तजाम; सुसम्पन्न = भरा-पूरा।