कॉलिज-जीवन में प्रवेश की तैयारी हिंदी निबंध | life college admission preparation hindi essay
नमस्कार दोस्तों आज हम कॉलिज-जीवन में प्रवेश की तैयारी हिंदी निबंध इस विषय पर निबंध जानेंगे।प्रस्तावना-प्रत्येक व्यक्ति के मन में यह इच्छा होती है कि वह उन्नति की ओर बढ़े और जीवन में कुछ कर दिखाए। यही बात शिक्षा के क्षेत्र में भी मानी जाती है। शिक्षा एक ओर जीवन है तो दूसरी ओर वह भविष्य में जीवन की तैयारी है। सामान्य रूप से शिक्षा एक लम्बी श्रृंखला है जो एक इकाई की भांति कार्य करती है, किन्तु इस श्रृंखला को अनेक कड़ियों में बांट दिया गया है।
जब कोई बालक मध्यमा परीक्षा अथवा हाई-स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण कर लेता है तो वह उच्च शिक्षा की कल्पना कर पढ़ना चाहता है। वास्तव में उच्च शिक्षा की कल्पना में एक अलग तरह का आनन्द होता है। सच बात तो यह है कि उच्च शिक्षा में प्रवेश के साथ-साथ किशोरों के लिए अनेक द्वार खुल जाते हैं। जैसे-जैसे उसके जीवन में बदलाव आता है, किशोरावस्था के आगमन के साथ ही वह नये सपनों को सजाना शुरू कर देता है। वैसे कॉलेज जीवन के प्रवेश के साथ ही वह जीवन के नए स्वरूप के सपने भी देखने लगता है। इस तरह की कल्पना प्रत्येक युवक के मन में झलकती है। मेरे मन में भी इस तरह की कल्पना का भाव उत्पन्न होता है।
कॉलेज-जीवन में प्रविष्ट का मार्ग-हाई-स्कूल परीक्षा समाप्त होने के साथ ही साथ यह निश्चित कर लिया था कि मैं आगे पढूंगा। आगे पढ़ने वाले विषयों के बारे में मैं मन-ही-मन अनेक प्रकार की कल्पना करता था। गर्मियों की छुट्टियों में यह क्रम इसी तरह चलता रहा। यह क्रम और भी तेज हो गया जब हाई-स्कूल परीक्षा का परिणाम आ गया। परीक्षा में प्रथम श्रेणी मिलने के कारण और परिवार वालों के मन में यह धारणा और दृढ़ हो गई कि मेरी उच्च शिक्षा की व्यवस्था प्रत्येक दशा में होनी चाहिए।
इसके बाद मैं उत्सुकता से कॉलेज के खुलने और कॉलेज जाने की प्रतीक्षा करने लगा। इस बीच में मैंने अनेक कॉलेजों की विवरण पत्रिकायें मंगाईं और वहां के विषय में जानकारी प्राप्त की। अन्त में यह निर्णय किया गया कि मुझे सेंट बर्नार्ड महाविद्यालय में अपनी उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश लेना चाहिए।
कॉलेज में प्रवेश-बड़े उत्साह से प्रतीक्षा करते हुए तीन सप्ताह बीत गए और 8 जुलाई आ गई। वह दिन मेरी प्रतीक्षा का दिन था। सेंट बर्नार्ड कॉलेज में प्रवेश लेने के लिए मैं प्रातः 300 किमी० की यात्रा करके उत्तर-प्रदेश की राजधानी में आया। बड़ा नाम सुना था उस नगरी का और सबसे अधिक नाम था उस संस्था का जिसमें मैं प्रवेश लेने जा रहा था। जीवन में प्रवेश लेने के लिए मेरे परिवार के लोगों ने मुझे अकेला छोड़ दिया, जिस कारण मुझे अकेले ही रेल की यात्रा करनी पड़ी थी तथा कॉलेज में प्रवेश की व्यवस्था-जिम्मेदारी को भी सौंपा गया था। वैसे प्रवेश पत्र इसके पूर्व ही भर चुका था और मैं आया था इन्टरव्यू देने, ताकि अपने को इस योग्य साबित कर सकूँ कि मुझे भी इस कॉलेज में प्रवेश लेने का अवसर मिले।
कॉलेज का पर्यावरण-मैं स्टेशन से सीधे कॉलेज आ गया। यहाँ का पर्यावरण अथवा वातावरण व्यस्ततापूर्ण था। असंख्य विद्यार्थियों की भीड़ चारों ओर घूम रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानो युवकों का सागर उमड़ पड़ा हो। प्रधानाचार्य के द्वार पर अभिभावकों की भीड़ लगी हुई थी, कॉलेज कार्यालय के समक्ष छात्रों का एक समूह था और कॉलेज के प्रांगण में इधर-उधर खड़े युवक झुण्डों में बात कर रहे थे।
इनमें से कुछ पुराने युवक थे जो गर्मियाँ समाप्त कर कॉलेज में जभी आए थे। उन्हें इस वर्ष अन्तिम परीक्षा पास करनी थी। वे मित्रों से मिल रहे थे, और कुछ आपस में अनेक प्रकार की हास्यपूर्ण बातें कर हँस रहे थे, जो उनके मैत्री भाव के स्नेह को प्रदर्शित कर रहा था कि वे अभिभावकों और विद्यार्थियों के प्रश्नों का सही-सही जबाव दे सकें। कार्यालय के दूर किनारे एक पूछताछ-गृह बना हुआ था जहां बैठे हुए नवयुवक शिक्षक अभिभावकों और छात्रों की उत्सुकता का यथासभव समाधान करने का प्रयास कर रहे थे।
उनका मुस्कुराता हुआ चेहरा और मधुर स्वर में दिए गए उत्तर उन सभी को संतुष्टि प्रदान कर रहे थे और कार्यालय के लिपिकों द्वारा फेंकी गई अशिष्टता की धूल को झाड़ देते थे। पूछताछ की बनी हुई खिड़की के साथ एक दूसरी खिड़की थी जहां एक नाटे कद का सज्जन गम्भीर स्थिति में बैठे हुए अभिभावकों और छात्रों को प्रवेश-पत्र और विवरण पत्रिकाएं बेच रहा था। प्रत्येक व्यक्ति से वह निर्धारित की गयी कीमत लेकर पत्रिकाएं दे रहा था। यदि कोई व्यक्ति बड़ा नोट दिखाता तो उनके गम्भीर चेहरे पर बेचैनी के भाव साफ नजर आ जाते थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उसे इस नोट को भुनाने में जो परेशानी होगी उसको वह अपने कर्तव्य का हिस्सा नहीं मानता था।
प्रधानाचार्य महोदय अभिभावकों और छात्रों को क्रम में एक-एक करके बुला रहे थे और उनकी परेशानियों का यथासम्भव समाधान करने का प्रयास कर रहे थे। जो विद्यार्थी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए थे, पूछताछ की खिड़की के पास उन्हें यह स्पष्ट निर्देशन था कि वे प्रधानाचार्य से मिल लें। मैंने सबसे पहले पूछताछ की खिड़की पर प्रवेश के विषय में जानकारी ले ली और उसके बाद प्रधानाचार्य महोदय के कार्यालय के बाहर उनसे भेंट करने के लिए खड़ा हो गया। बैठे हुए वहां पर चपरासी न मुझे टोकन दिया जिस पर 44 संख्या लिखी थी। मैं समझ गया कि मुझे मिलने में अभी समय लगेगा, इस कारण उससे कहकर कि मैं अभी आता हूँ, विद्यालय में खुले स्थानों पर घूमने चला गया।
विद्यालय के खुले स्थानों में कार्यालय के बाहर साइकिलों की लम्बी पंक्ति लगी हुई थी। साइकिल रखने के स्थान पर एक जिम्मेदार चौकीदार था जो साइकिलों को देखने का कार्य करता था। साइकिल की लम्बी लाइन को देखकर मुझे थोड़ा हर्ष हुआ। मन में यह सोचा कि केवल सिनेमाघरों ही नहीं, विद्यालय में भी युवकों की संख्या अधिक है। वरन् इतनी साइकिलों की संख्या यहां न दिखाई देती।
मैं खुले स्थानों पर इधर-उधर घूम रहा था कि मेरी निगाह विद्यालय-भवन की घड़ी पर पड़ी। उस घड़ी में 4 चेहरे बने हए थे और चारों की सूइयां अलग-अलग समय पर निर्देश कर रही थीं। यह देखकर ऐसा प्रतीत हआ कि घडी भी इस देश की जनता का प्रतिनिधित्व करती है जहां प्रत्येक व्यक्ति ने अपनी दिशा अपने ढंग से तय कर रखी हो। आगे चलकर देखता हूं कि छात्र फूल की एक क्यारी को नष्ट कर आगे चले जा रहे हैं। ऐसा देखकर लग रहा था कि जैसे वह ऐसी जगह से आए हैं जहां फूलों का कोई महत्व नहीं होता है।
क्यारी के बराबर में एक बोर्ड पर लिखा था कि कृपया फूल मत तोड़ो और क्यारी से दूर हट कर चलें ताकि पौधे नष्ट न हो जायें। इस आदेश की अवहेलना को देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे इस पीढ़ी के नौजवान हर मान्यता को रौंदते हुए आगे बढ़ रहे हैं, कि अचानक मुझे मेरा मित्र मिल गया। वह मेरा हाई-स्कूल में सहपाठी था और द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ था। इस विद्यालय में वह भी प्रवेश लेने आया था। साथ में एक लिफाफा था जिसमें किसी अधिकारी ने प्रिन्सिपल महोदय के नाम एक पत्र लिखा था। मेरा सहपाठी इस पत्र को लिए बड़े गर्व के साथ इधर-उधर टहल रहा था। मैंने उससे पूछा कि तुमने प्रवेश फार्म भर दिया? उसने बताया कि उसे प्रवेश तो मिल ही जायेगा, इसलिए अभी उसे कोई चिन्ता नहीं है।
इसके बाद मैं घूमता-फिरता लौटकर पुनः प्रिन्सिपल के कार्यालय में आ गया। तब तक मेरे से पहले काफी लोग प्रिन्सिपल से मिल चुके थे। लगभग 15 मिनट तक इंतजार करने के बाद मेरा नम्बर आ गया। प्रिन्सिपल महोदय ने बड़े स्नेहपूर्वक ढंग से मुझसे बात की, मेरा परिचय पूछा, मेरी पारिवारिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि का ज्ञान प्राप्त किया, इसके पश्चात् मुझे बताया कि मैं अपना शुल्क कार्यालय में जमा करा दूं। वास्तव में मुझे प्रवेश पत्र प्रदान कर उन्होंने मुझे हर्ष से परिपूर्ण कर दिया।
मैंने उन्हें यह भी बताया कि मैं छात्रावास में रहूंगा। उसके लिए भी उन्होंने मुझे एक चिट लिखकर दी और छात्रावास के अधीक्षक महोदय से मिलने को कहा। वहां जाने पर भी मुझे थोड़ी देर इंतजार करना पड़ा। प्रतीक्षा के बाद अधीक्षक महोदय ने बताया कि मुझे कल आना होगा। उनके मिलने का समय समाप्त हो गया है। मैंने उनके सामने अपनी परेशानियां बतानी चाहीं, किन्तु उन्होंने उसे समझने से साफ इन्कार कर दिया। यह देखकर मेरे मन में यह भाव आया कि आज भी इस स्वतन्त्र भारत में कुछ ऐसे व्यक्ति हैं जो मनुष्य की अपेक्षा यंत्र अधिक हैं। अनुभव कटु था किन्तु मन मारकर मैं चला गया। जानता था कि अधीक्षक से विवाद करने से निश्चित है कि छात्रावास में प्रवेश नहीं मिलेगा और सारी पढ़ाई सदा के लिए चौपट हो जायेगी।
उपसंहार-इस समय तक एक बज चुका था, मुझे थकावट पीड़ित कर रही थी। छात्रावास के अधीक्षक महोदय के व्यवहार ने शारीरिक थकावट के साथ-साथ मानसिक परेशानियों की ज्वाला को भी तीव्र कर दिया था। मैं लौट पड़ा स्टेशन की ओर, जहां मेरा सामान पड़ा हुआ था।
कॉलेज की प्रथम झलक में ही मुझे सुखद और दुःखद का अनुभव हुआ। जहां मेरे लिए उच्च शिक्षा और जीवन-निर्माण का द्वार खुल गया था, वहां यह तथ्य भी सामने आ गया था कि जीवन उतना सरल नहीं है जितना मैंने सोचा था। जीवन में प्रतिस्पर्धा और कटुता भी देखने को मिलती है। शिक्षा और कॉलेज जीवन एक सुखद कल्पना नहीं है, उसमें थोड़ा-सा दुःखद भी है और इसके बिना जीवन सुखद नहीं बनाया जा सकता। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।