नक्सलवाद पर निबंध | Naxalism In India Essay in Hindi

 

नक्सलवाद पर निबंध | Naxalism In India Essay in Hindi

नमस्कार  दोस्तों आज हम नक्सलवाद इस विषय पर निबंध जानेंगे। नक्सलवाद की समस्या एक प्रतिक्रिया के रूप में सामने आयी है, जो कि सामंतवादी व्यवस्था के खिलाफ है। यह एक ऐसे आतंकवाद के रूप में सामने आ रही है जिसके मूल में माओत्सेतुंग का दर्शन छिपा है, जिसे क्रान्तिकारी वामपंथी दर्शन कहा जाता है। 


इस आतंक की शुरूआत असंतुलित व एकपक्षीय व्यवस्था के निर्माण के लिए होती है, जो कि आर्थिकसामाजिक न्याय पर केन्द्रित हो और जिसमें किसी की उपेक्षा न की गयी हो नक्सलवाद, जनवाद का पक्षधर होता है और वह जनवादी व्यवस्था की तरफदारी करता है। 


चीन के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले माओ कृषक मार्क्स और लेनिन के दर्शन से प्रभावित थे और इन्होंने ही नक्सलवाद का सूत्रपात किया। माओ कृषकों ने पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ बिगुल फूंक दिया और जनवादी व्यवस्था की हिमायत की।


1949 में उन्हें सफलता भी मिली। भारत में नक्सलवाद का प्रभाव चीन से ही आया माना जाता है। नक्सलवादी विचारधारा से प्रभावित होकर भारत में चारू मजूमदार और कनुसान्याल ने इसकी बुनियाद रखी और अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया नक्सलवादी गाँव को। 


यह गाँव पश्चिम बंगाल के दाजिलिंग जिले में स्थित है। यहीं से नक्सली गतिविधियों का संचालन शुरू हुआ। चूँकि नक्सलवादी से शुरूआत हुई, अतएव व्यवस्था के खिलाफ शुरू हुई गतिविधियों को नक्सलवाद नाम दिया गया। जैसे कि पहले ही बताया जा चुका है, नक्सलवादी जनवादी व्यवस्था के पक्षधर होते हैं, अतएव भारत में भी इन्होंने लोकतान्त्रिक व्यवस्था के खिलाफ, जनतान्त्रिक व्यवस्था का परचम बुलन्द कर दिया। 


इसकी शुरूआत हुई उन गरीबों के एकीकरण से, जिनके पास भूमि के नाम पर एक टुकड़ा भी नहीं था। भूमिहीनों को भू-पतियों के विरुद्ध संगठित किया जाने लगा और उनके खिलाफ खूनी लड़ाई छेड़ी गई और लड़ाई की गोरिल्ला नीति अख्तियार की गयी। 


धीरे-धीरे नक्सलवाद के रूप में इसने उन प्रान्तों में भी प्रवेश शुरू कर दिया, जो कि अभी तक इससे अछूते थे। शुरू में आन्ध्र प्रदेश व केरल में नक्सलवाद का प्रभाव बढ़ा, फिर बिहार और झारखण्ड में इसने अपने पाँव पसारे। महाराष्ट्र व मध्य प्रदेश को समेटता हुआ नक्सलवाद उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्सों तक चला आया। 


नक्सलवाद के बढ़ते प्रभाव के साथ नक्सली हिंसा भी बढ़ने लगी। ‘पीपुल्स वार ग्रुप' व 'माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर' जैसे संगठनों ने खून की होली खेलनी शुरू कर दी। नक्सलवाद के बढ़ते प्रभाव के परिणामस्वरूप ‘एंटी-थिसिस' (प्रतिवाद) सामने आया और प्रतिक्रिया या प्रतिवाद में रणवीर सेना जैसे संगठन खडे हो गये।


यह नक्सलवादियों से भिड़ने वाले मजबूत संगठन के रूप में उभरा जिसकी सक्रियता मध्य बिहार में ज्यादा रही। अभी तक छोटी-मोटी घटनाओं के अलावा यह संगठन लक्षमणपुर बीघा में 60, नारायण बीघा में 12, मिथापुर में 36, शंकर बीघा में 16 तथा बथानी टोला में 20 लोगों को मौत के घाट उतार चुका था।


इसका सरगना ब्रह्मेश्वर सिंह पिछले दिनों पटना में पकड़ा गया। यों तो नक्सलवाद की शरूआत प० बंगाल से हई मगर इसकी जड़ें मध्य बिहार में बहुत तेजी से पुख्ता हुईं। चूंकि भूमि स्वामित्व को लेकर बिहार में पहले से ही काफी असन्तोष था। इसलिए यहाँ नक्सलवाद की जड़ें जमाने में देर न लगी।


नक्सलवाद और फिर इसके प्रतिवाद स्वरूप जो हिंसा का नग्न ताण्डव हुआ उससे अमन-चैन नष्ट हो गया। नक्सलवाद से प्रभावित क्षेत्रों में जहाँ अशान्ति फैल गयी, वहीं कानून-व्यवस्था को बनाये रखना सरकार के लिए चुनौती बन गया।


इसमें कोई दो राय नहीं कि नक्सलवाद की अवधारणा चीन से भारत में आयी, पर इसके पनपने के पीछे भारत में पहले से ही विद्यमान असन्तुलन व असमानता की स्थितियाँ काफी जिम्मेदार रहीं। सन् 1972-73 में बाबू जयप्रकाश नारायण ने इस दिशा में ध्यान दिया और सकारात्मक कदम उठाये।


नतीजतन नक्सलवाद का प्रभाव कुछ ठण्डा पड़ा, किन्तु इधर फिर इसमें काफी तेजी आ गयी है। नक्सलवाद के भारत में पनपने और इसके प्रभाव में आयी तेजी के पीछे मुख्य कारण हमारी सामाजिक-आर्थिक व घरेलू स्थितियाँ हैं, जो कि सन्तुलन के लिहाज से सन्तोषजनक नहीं हैं। 


आँकड़ों में हम भले ही भारत को विकास के पथ पर अग्रणी क्यों न दिखा दें; पर वास्तविक स्थिति कुछ और ही है। किसी को एक रोटी मयस्सर नहीं है, तो कोई धन-धान्य से भरा है। किसी के पास एक टुकड़ा जमीन नहीं तो कोई बेहिसाब जमीन का स्वामी है। 


कहने का आशय है कि हमारे यहाँ काफी पहले से ही ऐसी जमीन तैयार थी, जिस पर नक्सलवाद आसानी से पनप सके। हुआ भी वही। हमारे यहाँ भूमि सुधार का यथेष्ट लाभ कृषकों को नहीं मिल पाया।आन्ध्र प्रदेश के तेलंगाना को ले लीजिये। 


वहाँ भी स्थिति अत्यन्त भयावह है। वहाँ का गरीब किसान आत्महत्या क्यों कर रहा है? क्या सरकार ने इस बारे में जानने का प्रयास किया और यदि किया, तो समस्या के समाधान के लिये कौन-से कदम उठाये? नक्सलवाद केमल में सामाजिक-आर्थिक असमानता है और जब तक इस असंतुलन पर असमानता को दर नहीं किया जाएगा, तब तक इसके प्रभाव को रोक पाना मुमकिन न होगा।


आज नक्सलवाद के बढ़ते प्रभाव को रोकना व हिंसा-प्रतिहिंसा की घटनाओं की रोकथाम प्रशासन के समक्ष एक बड़ी चुनौती है। दुःख इस बात का है कि इस समस्या के सफाये में प्रशासन अदूरदर्शी कदम उठा रहा है। जिस दूरदर्शिता की दरकार है, न जाने क्यों वह प्रशासन के पास नहीं दिख रही है। 


हम नक्सलवाद से जुड़े संगठनों को प्रतिबन्धित कर रहे हैं। उन्हें पोटा जैसे कानूनों की जद में ला रहे हैं। खुंखार नक्सलियों पर ईनाम की घोषणा कर रहे हैं। पकड-धकड़ भी करते हैं। पर ढाँचागत बदलाव की तरफ नहीं जा रहे हैं और ऐसी समस्या के जड़-काट के लिये कोई पुख्ता असरदार योजना लागू नहीं कर रहे हैं।


नक्सलवाद के प्रभाव को खत्म करने के लिये हमें इस समस्या के उस मुल कारण पर ध्यान देना होगा, जिसने इस समस्या को बढ़ावा दिया है। यह मूल कारण है, सामाजिक-आर्थिक असमानता। 


हमें इस असमानता को दूर करने के लिये भूमि सुधारों को प्रभावी बनाना होगा तथा कानून को सख्ख बनाकर उन पर अमल शुरू करवाना होगा। जब असमानता से उपजा असन्तोष दूर होगा तो स्वतः नक्सलवाद का प्रभाव घटने लगेगा और अमन-चैन के दिन लौट आयेंगे। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।