साक्षरता अभियान पर हिंदी निबंध | saksharta abhiyan essay in hindi

 

साक्षरता अभियान पर हिंदी निबंध | Saksharta Abhiyan Essay In Hindi


नमस्कार  दोस्तों आज हम साक्षरता अभियान इस विषय पर निबंध जानेंगे। प्रस्तावना-देश जिन विपत्तियों से आज गुजर रहा है उन सभी का सम्बन्ध केवल प्रशासन, सुरक्षा व अर्थ जगत से ही नहीं, बल्कि शिक्षा और सामाजिक संस्कारों से भी है। 

अन्य समस्याएँ तो सामयिक हैं और थोड़ी बहुत सूझबूझ वाला नेतृत्व इसकी कड़वाहट सन्तोषजनक स्तर तक घटा सकता है लेकिन शिक्षा एवं संस्कृति की समस्याएँ इतनी अधिक है कि इन्हें आनन-फानन में क्या काफी कड़े सरकारी प्रयास से काबू में नहीं किया जा सकता? सरकार इन मामलों में केवल सहयोग ही दे सकती है बाकी कुछ नहीं।


शिक्षा के पक्ष-शिक्षा के मुख्यतः दो पक्ष होते हैं (1) साक्षरता, (2) गुणवत्ता। लकिन दुःख होने वाली बात यह है कि साक्षरता एवं गुणवत्ता दोनों ही मामलों में भारत प्रगतिशील नहीं रहा है। सन् 1981 से 1991 के बीच साक्षरता की जो वृद्धि हुई वह सरकार के द्वारा ही हई।


असलियत यह है कि सन् 1991 की जनगणना में साक्षरता का आंकलन करते समय 6 वर्ष से कम आयु के बच्चों को निरक्षर मान लिया गया (जो ठीक) और उसकी संख्या को सम्पूर्ण जनसंख्या से घटाकर शेष आबादी की साक्षरता की गणना की गयी।

इस तरह शिक्षित आबादी के आंकड़ों को 52 प्रतिशत की सीमा लंघाई गई जबकि गणना की पुरानी परिपाटि का अनुसरण किया गया होता और शैक्षिक गणना सम्पूर्ण आबादी के मद्देनजर की जाती तो साक्षरता की प्रतिशत केवल 40.84 प्रतिशत के दायरे में ही आती, लेकिन भला हो तत्कालीन शिक्षा एवं योजना आयोग का, जिन्होंने सही दिशा में शिक्षा सम्बन्धी आंकड़ा बनाते समय 6 वर्ष तक के बच्चों को पीछे करके देश की मान-मर्यादा बचा ली।



(1) अनपढ़ बनाये रखने के पीछे समाज अनपढ़ बनाने के पीछे केवल सरकार को ही दोषी नहीं कहा जा सकता। अनपढ़ बनने एवं बनाने के पीछे समाज या जनता का भी हाथ है। यदि हम पीछे न जाकर सन् 1981 से 1991 तक का जायजा लें तो यह बात प्रभावित हो जाती है कि इसमें जनता का अधिक दोष है।


इन 10 सालों में देश की आबादी में मुनाफा हुआ लेकिन जमीन की दूरियों का विस्तार नहीं हुआ। जनसंख्या का घनत्व बढ़ा लेकिन किसी शहर, ग्राम एवं कस्बे का क्षेत्रफल नहीं बढ़ा। देश में ऐसा कोई भी स्कूल या कॉलिज नहीं है जहाँ दाखिला लेने आये विद्यार्थियों को भगा दिया जाता है। 


दूसरी ओर अनौपचारिक शिक्षा को लेकर की गई सरकारी कोशिशें यदि पर्याप्त नहीं तो वे शून्य भी नहीं रही हैं, फिर इन दस वर्षों में साक्षरता वृद्धि की दर इतनी शर्मनाक क्यों रही, इसका कारण एक है-लोगों को शिक्षा के प्रति जागरूक न होना।


समाजशास्त्री बताते हैं कि गरीबों के बच्चे अपने घरों में भरपेट भोजन भी नहीं कर पाते, इसलिए उनका स्कूल जाना कैसे सम्भव हो सकता है? इसमें दो बातें गौरतलब हैं-पहली बात यह कि शहरों के कुछ लावारिस एवं बेसहारा बच्चों को छोड़कर भारत का कोई ऐसा घर नहीं, जिसमें आज की तारीख में पेट भरने के लिए रूखा-सूखा ही सही भरपेट भोजन न मिलता हो।


दूसरी बात यह कि अच्छे भोजन से शिक्षा का कोई अनिवार्य सम्बन्ध नहीं होता। यदि पलभर के लिए अच्छे भोजन को अच्छी शिक्षा का अनिवार्य साधन मान भी लिया जाये तो कम-से-कम साक्षरता मात्र की यह अनिवार्य शर्त तो कतई नहीं हो सकती


लेकिन फिर भी सरकार ने राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के दौरान स्कूलों में अच्छे भोजन की व्यवस्था भी करा दी, क्योंकि जनहित में यह योजना बुरी नहीं थी लेकिन यह योजना और कितने दिनों सर्वव्यापी बनेगी तथा कितनी ईमानदारी से लागू होगी, इसके बारे में बहुत आशाजनक कल्पना करना जल्दबाजी कही जायेगी।


सन् 1985-86 में शुरू किये नये विद्यालयों को देखा जाये तो उम्मीदें यही बनती हैं। शुरूआती उत्साह ठण्डा पड़ जाने के बाद स्कूलों में अच्छे भोजन की उपलब्धि केवल बड़े सरकारी अधिकारियों तथा नेताओं के निरीक्षण तक ही सीमित रह जाती है। बच्चों को बंटने वाले पोषक आहार शिक्षकों या कार्यकर्ताओं के घरों में खाने के काम आते हैं या खराब होने पर फेंक दिये जाते हैं।


(2) शिक्षा के प्रति जागरूक न होना-राष्ट्रीय साक्षरता मिशन को कायम रखने एवं कामयाब बनाने के लिए सरकारी कार्यवाही से जरूरी लोगों की जागरूकता है। जब तक आम जनता की समझ में यह बात नहीं आयेगी कि शिक्षा स्वयं एक उपलब्धि है तब तक वे इसके प्रति उत्साहित नहीं होंगे 


तथा कभी भोजन तो कभी वस्तु का बहाना चलता रहेगा। लोगों को यह समझना जरूरी है कि शिक्षा मनुष्य को अच्छा आदमी बनाती है और इसके अभाव में मनुष्य पशु के समान होता है लेकिन आज की सरकार की शिक्षा नीति के अनुसार अब शिक्षा मनुष्य को अच्छा बनाने के लिए नहीं, बल्कि उसे एक अच्छा संसाधन बनाने के लिए दी जाती है।

जब सरकार की घोषित नीति यही है, इस नीति का व्यावहारिक परिणाम यही है तो ऐसी शिक्षा से क्या लाभ जो लोगों को सिर्फ एक अच्छा आदमी बनाकर छोड़ दे, सरकार अच्छा आदमी बनने के लाभों से जनता को अवगत कराये बिना उचित प्रेरणा के कोई प्रयास सम्भव नहीं।


अशिक्षित लोग भी शिक्षित होने का प्रयास तभी करेंगे, जब उन्हें इसके लिए माकूल प्रेरणा दी जायेगी और यह प्रेरणा स्कूलों में एक वक्त का अच्छा भोजन कदापि नहीं हो सकता। इसलिए उपयुक्त प्रेरणा का कोई अन्य स्रोत खोजना अवश्य है। यही शिक्षाविदों एवं समाजशास्त्रियों का सम्पूर्ण राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के सम्बन्ध में सर्वोच्च दायित्व होगा।


उपसंहार-राष्ट्रीय साक्षरता मिशन का अर्थ है कि जनता के प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षित करना, लेकिन जनता को अनपढ़ बनाने के पीछे सरकार ही नहीं जनता भी स्वयं साझेदार है। मनुष्य को अगर शिक्षित होना है तो उसे उस पढ़ाई से केवल अच्छा आदमी बनने का मतलब नहीं होना चाहिए,


बल्कि उसे एक महान एवं सुदृढ़ आदमी बनने का मतलब होना चाहिये। हर एक व्यक्ति के लिए शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए तभी भारत देश सर्वोच्च शिखर पर पहुँच सकेगा एवं उसका उद्धार हो सकेगा। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।