धर्मनिरपेक्षता पर हिंदी निबंध | SECULARISM ESSAY IN HINDI
नमस्कार दोस्तों आज हम धर्मनिरपेक्षता इस विषय पर निबंध जानेंगे। भारत में धर्म-निरपेक्ष परम्पराओं की जड़ें बहुत गहरी हैं। समय-समय पर देश के महापुरुषों ने इसे अपने स्वेद और रक्त से सींचा है। यही कारण है कि आज भी धर्म-निरपेक्षता की हमारी छवि अक्षुण्ण बनी हुई है और इस सन्दर्भ में हमारी परम्पराएँ समृद्ध और सशक्त हैं।
जिस देश में धर्म-निरपेक्षता न हो, कदाचित् वहाँ लोकतान्त्रिक मर्यादाएँ पनप नहीं सकतीं और न ही ऐसा राष्ट्र स्वस्थ लोकतान्त्रिक राष्ट्र ही कहला सकता है। मजबूत राष्ट्र और राष्ट्रवाद के विकास के लिए देश का धर्म-निरपेक्ष स्वरूप बहुत आवश्यक होता है और इस बात कर पूरा इल्म हमारे संविधान निर्माताओं को था।
तभी तो संविधान बनाते समय यह व्यवस्था की गयी कि भारत का कोई ‘राज धर्म' नहीं होगा। यहाँ हर धर्म हर मजहब का सम्मान होगा और इन्हें मानने वाले अपने धर्म के अनुसार आचरण कर सकेंगे। धर्म-निरपेक्षता के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जाना कि हमें धर्म-निरपेक्षता की अवधारणा पश्चिम से मिली है, उचित नहीं है।
कहा जाता है कि इस संदर्भ में हम पश्चिम के ऋणी हैं। हमें धर्म-निरपेक्ष का सिद्धान्त पश्चिम से मिला। ये बातें सही नहीं दिखतीं। जिस ब्रिटेन की उपनिवेशवादी सरकार ने अपने साम्राज्य का सूर्य न अस्त होने की गरज से जमकर 'टूट-फूट' और 'गोरे-काले' की राजनीति की है, वह भला किसी को धर्म-निरपेक्षता का पाठ कैसे पढ़ाएगा।
हुकूमत को पुख्ता रखने के लिए जो धर्म को धर्म से लड़वाते रहे हों, वे अवसरवादी तत्व धर्म-निरपेक्ष कैसे हो सकते हैं? सच तो यह है कि भारत 'विश्व गुरु' रहा है। उसने दुनिया को भाईचारे, शान्ति-सौहार्द्र और सहिष्णुता का संदेश दिया है। पश्चिम के पास जो बहुत बाद में पहुँचा वह भारत के पास बहुत पहला था।
भारत तो शुरू से विविधताओं से भरा देश रहा है। तभी तो कहा गया है कि 'कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी।' मशहूर शायर फिराक गोरखपुरी फरमाते हैं-'काफिले बसते गये, हिन्दोस्तां बनता गया। ऐसे में हमें धर्म-निरपेक्षता का पाठ किसी और से नहीं पढ़ना पड़ा।
धर्म-निरपेक्षता तो हमारे खून में, हमारे संस्कारों में रची-बसी है और हम सदियों से इसे जीते और निबाहते चले आ रहे हैं। यही हमारी विरासत है। यही कारण है कि पश्चिमी धर्म-निरपेक्षता की तुलना में भारतीय धर्म-निरपेक्षता का स्वरूप विलग है।
जहाँ भारत में सभी धर्म-आदरणीय हैं, स्वीकार्य व सम्मानित हैं, वहीं पश्चिम में तमाम धार्मिक प्रणालियों को नकार दिया जाता है। यानि प्रकृति के स्तर पर भी भारतीय व पश्चिमी धर्म-निरपेक्षता में बड़ा फर्क है। हमारी सांस्कृतिक एकता, हमारी दृढ़ धर्म-निरपेक्षता की साक्षी रही है। विविधताओं वाले इस देश में 1652 मातृभाषाएं बोली जाती हैं। तमाम धर्म के लोग भारत में रहते हैं यह साथ बहुत पुराना है।
वस्तुतः धर्म-निरपेक्षता तो सहनशीलता का ही थोड़ा विकसित स्वरूप है। यह भाव हमें सृष्टा ब्रह्मा ने दिया, जिसे भरत ने 'पंचम वेद' नाम दिया। जो कि धर्म और जाति के भेदों से ऊपर था। भारत की पहली 'सिन्धु सभ्यता' का स्वरूप भी धर्म-निरपेक्ष ही था। भारत की प्राचीन सभ्यताओं के परिप्रेक्ष्य में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर का यह कहना कितना प्रासंगिक है
“भारत में जो लोग सबसे पहले सभ्य हुए होंगे, वे धर्म-निरपेक्ष भी रहे होंगे। तभी तो वे एक-दूसरे के साथ इतने तालमेल से रह पाते थे।” इससे यह स्पष्ट होता है कि भारत में धर्म-निरपेक्षता कहीं से आयी नहीं, बल्कि वह यहीं की मिट्टी में पनपी और विकसित हुई। अपनी पुस्तक 'इंटरनल वैल्यू फॉर ए चेंजिंग सोसाइटी' में स्वामी रंगानाथानन्द ने लिखा है, “सहिष्णुता की भावना से प्रेरित होकर दूसरों को स्वीकार करने की धारणा भारतीय संस्कृति का सार है।
धर्म पर गाँधी जी की यह व्याख्या कितनी सुसंगत है “विभिन्न धर्म मनुष्य की पाश्विक प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने के लिए बने हैं, न कि इन्हें खुला छोड़ देने के लिए।" अकबर ने न सिर्फ ऐसी राष्ट्रीय एकता को विकसित किया जो कि उदारता पर आधारित थी, अकबर द्वारा स्थापित 'दीन-ए-इलाही' में पारस्परिक भाईचारे पर जोर दिया गया था। इसकी स्थापना अकबर ने फतेहपुर सीकरी में मुसलमानों, सूफी-सन्तों, हिन्दू शास्त्रियों, सिक्ख, जैन, यहूदी, पारसी आदि से वार्ता करने के बाद की थी।
भारत में 19वीं सदी सुधार की सदी थी। सामाजिक विकृतियों और विद्रुपताओं को दूर करने के लिए अनेक सामाजिक और धार्मिक आन्दोलन व अभियान चलाये गये। आर्य समाज, प्रार्थना समाज, रामकृष्ण मिशन आदि की स्थापना हुई और इनके जरिये धर्म-निरपेक्ष भारतीय परम्पराओं को आगे बढ़ाया गया तथा पंथनिरपेक्ष विचारों का प्रचार किया।
भारत में धर्म-निरपेक्षता की जड़ें अत्यंत गहरी होने के बावजूद हमें बँटवारे के रूप में करारा झटका लगा, यह किसी बड़े आघात से कम नहीं था। ऐसा नहीं है कि बँटवारे का पुरजोर विरोध न किया गया हो। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने कहा था
“अगर फरिश्ते आसमान से नीचे उतर आएं और कुतुबमीनार के ऊपर से ऐलान करें कि हिन्दू-मुस्लिम एकता को छोड़ दो, तो ऐसे स्वराज को मैं लेने से इन्कार कर दूँगा और अपने निश्चय से एक इंच भी पीछे नहीं हदूँगा।"
26 जनवरी, 1950 को भारतीय संविधान लागू हुआ जिसके पाँच स्तम्भों के अन्तर्गत न सिर्फ धर्म-निरपेक्षता को स्थान दिया गया बल्कि सन् 1976 में 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से धर्म-निरपेक्षता को संविधान की प्रस्तावना में भी सम्मिलित किया गया। यह सच है कि हम अपनी धर्म-निरपेक्षता के लिए सदैव कटिबद्ध रहे हैं।
पिछला दौर तो कुछ ज्यादा ही नाजुक रहा। हमारे सर्वधर्म समभाव व हमारी धर्म-निरपेक्षता को कलंकित करने के लिए आतंकवादी शक्तियों ने सिर उठाकर अलगाव की कोशिशें शुरू कर दीं। समय-समय पर मजहबी दंगे भड़काने की कोशिशें हुईं। देश को अस्थिर करने के प्रयास हुए। इंदिरा गाँधी को आतंकवादियों ने ढेर कर दिया।
भारत में धर्म-निरपेक्षता और मजबूत हो सकती है। यदि शिक्षा के प्रचार-प्रसार पर अधिकाधिक ध्यान दिया जाए। साक्षरता दर बढ़ायी जाए। महिलाओं को सशक्त कर, उन्हें शिक्षित व आत्मनिर्भर बनाकर बेकारी व बेरोजगारी को दूर कर विज्ञान व तकनीक का विकास कर तथा समाज को भयमुक्त व अपराधमुक्त बनाकर देश में धर्म-निरपेक्षता की जड़ें और मजबूत की जा सकती हैं।
दुःख का विषय है कि धर्म-निरपेक्षता की बात करते समय हम इन बिन्दुओं को नजरअंदाज कर जाते हैं। जबकि इन पर ध्यान देना निहायत जरूरी है। जब देश स्वावलम्बी होगा, विकसित होगा, ज्ञान का प्रकाश चहंदिशा होगा। समाज स्वच्छ होगा, अराजकता व अपराध नहीं होंगे, युवक बेरोजगार नहीं होंगे तो धर्म-निरपेक्षता तो स्वतः सशक्त व सर्वोच्च रहेगी।
हमें अपने बुजुर्गों से, पुरानी पीढ़ियों से धर्मनिरपेक्षता विरासत में मिली है। यह हमारी वह धरोहर है, जिसकी रक्षा हमने कुर्बानियाँ देकर की है। सशक्त भारत की आधारशिला, धर्म-निरपेक्षता ही है और हमें हर हाल में इसकी निरपेक्षता की अक्षुण्णता आवश्यक है।
तभी तो गाँधी जी ने कहा था “एकता में शक्ति है।” यह उक्ति किताबी बात नहीं है, बल्कि यह तो जीवन का एक नियम है, जो तमाम धर्मों की आत्मा से स्पष्ट रूप से झलकता है। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।