विद्या ददाति विनयम हिंदी निबंध | Vidya Dadati Vinayam Hindi Nibandh

 

 विद्या ददाति विनयम हिंदी निबंध | Vidya Dadati Vinayam Hindi Nibandh

नमस्कार  दोस्तों आज हम  विद्या ददाति विनयम इस विषय पर निबंध जानेंगे।अचानक शिक्षा का सन्दर्भ आते ही कवि सम्राट पण्डित अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' का एक चौपदा याद आने लगा तह-ब-तह जो कीच की जमनी गयी कीच को तब कीच से कैसे छिले तब भला किसी भाँति अंधपन टले जब किसी अंधे को अंधा ही मिले। इससे बहुत कुछ मिलती-जुलती वाणी तुलसी जी की है


गुरु सिख अंध बधिर कर लेखा एक न सनइ एक नहिं देखा।और कबीर तो पहले ही कह गये हैं कि अंधै अंधा ठेलिया दोनों कप। परन्तु स्पष्ट है कि ये सब बातें शिक्षा के सन्दर्भ में कुशिक्षा को लक्ष्य करके कही गयी हैं। उसी से आज का समाज पीड़ित है। इस दृष्टि से ऐसी उक्तियाँ नितांत प्रासंगिक हैं।


सीखना ही शिक्षा है-शिक्षा, शिक्षण, प्रशिक्षण आदि से ही देशज शब्द ‘सीखना' व्युत्पन्न है। अंग्रेजी जानने वाले इसी अर्थ में बहुत ‘लन' और 'लर्निग' शब्दों का प्रयोग भी कर देते हैं। लेकिन ‘लन' और 'लर्निंग' की श्रृंखला में ही व्यक्ति 'लर्नेड' हो जाता है जिसका अर्थ सीखा-पढ़ा कारीगर प्रवीण या योग्य नहीं केवल विद्वान माना जाता है जबकि सीखकर शब्द अधिक व्यापक है। बुजुर्ग सीख देते हैं, बच्चे सीखते हैं


चलना-बैठना-बोलना भी सिखाया जाता है। उस्ताद कुश्ती में दाँव सिखाते हैं।कुछ घरों में बच्चे चिलम भरना सीख लेते हैं। चारा काटना, लकड़ी चीरना, अचार बनाना भी बिना सीखे नहीं आता। खेलना, कारीगरी आदि भी सीखने से ही आती है। ‘


लन' में याद करने का भी भाव होता है लेकिन सीखने में स्मृति के बजाय अनुकरण, गलती करके सुधरने का भाव आता है। विद्या का अर्थ-सभी धार्मिक आस्थाओं में विद्याओं या अलूम की साधना को परम धर्म माना गया है। विद्या का सहज सम्बन्ध शिक्षक एजुकेशन और तालीम से भी जोड़ लिया जाता है।


कुछ ऐसे लोग भी हैं जो शिक्षा, एजुकेशन और तालीम को ही मानव जाति की सभी मुसीबतों की जड़ मानते हैकुछ इन्हें भयोत्पादक मानते हैं। यह तो दिखायी भी पड़ता है कि शिक्षक और शिक्षालय के नाम से बच्चों को डर लगता है। 

अंग्रेज एजुकेशन शब्द का प्रयोग करते हिचकते थे इसलिये आज जिसे शिक्षा निदेशक कहा जाता है, उसे अंग्रेजी जमाने में पब्लिक इंस्ट्रक्शन का डाइरेक्टर (डी०सी०आई०) कहा जाता था। अंग्रेज यह जिम्मेदारी नहीं लेता था। आज यह अर्थ भुलाकर एजुकेशन शब्द का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है। 


प्रयोग शिक्षा का भी बिना अर्थ जाने हो रहा है। शिक्षा दरअसल प्राणि मात्र में होती है। प्राणी की छिपी प्रतिभा को खोजकर उसे विकसित और प्रस्फुटित करना ही शिक्षा है। आज यह अर्थ कौन जानता है, कौन मानता है!  गाँधीजी ने भी कुशिक्षा से अशिक्षा को बेहतर माना था। इस आलोचना में अक्सर पूरा साहित्य रगड़ दिया जाता है।बात सही है। 


राम, सिकन्दर, नेपोलियन, लेनिन, कृष्ण आदि बिना अपनी जीवनी रटे ऐसे बन गए कि उनकी जीवनी लिखी और रटी जाने लगी। लेकिन जीवनी लिखने और रटने वालों में एक भी इनके जैसा न बना।


कटु सत्य यह भी है कि अगर कृष्ण और राधा के गलों में वैसे दस-दस किलो के बोझ लटका दिए गए होते जैसे आज लटका दिए जाते हैं। वैसा ही होमवर्क इन्हें भी मिल गया होता जैसा आज बच्चों को मिलता है तो गीता न होती, महाभारत न होता, सूरसागर और ब्रज काव्य तो होता ही नहीं। 


तब कोई विश्वविजेता न होता और कबीर जैसे संत भी न होते। राबर्ट लुई स्टीवेन्स ने लिखा ही है कि विश्वविद्यालय में स्वर्ण पदक दिमागी दिवालियेपन के सबूत के तौर पर दिया जाता है। उसे पाने वाले कभी बुद्धि से काम नहीं लेते और अत्याचारी कुशासन के हाँ हजूर बन जाते हैं। 


बच्चा आदमी बनने के लिए स्कूल भेजा जाता है। लेकिन वहाँ बनाया जाता है मुर्गा और इसके बाद वह जीवन भर कुकडू कूँ करता रहता है। विद्या के क्षेत्र विस्तृत हैं, विद्याओं की घेरेबन्दी में बहुत कुछ आ जाता है।


पहचान के लिए कुछ आदर्श वाक्य हैं विद्यया मृतमरनुते' (विद्या में अमरतत्व मिलता है), ‘सा विद्या या विमुक्तये'(विद्या वह है जो विशेष प्रकार की मुक्ति के लिए हो), 'विद्या ददाति विनयम्' (विद्या विनम्रता देती है) ये तो हुए पहचानने के लिए लक्षण।


विद्या का उद्देश्य-मोटे तौर पर हर किस्म की कारीगरी, कुशलता, योग्यता की क्रियात्मक जानकारी विद्या है। विद्या किसी को जन्मतः नहीं आती। सीखने से ही आती है। सीखने में जानना, पहचानना, अध्यवसाय, अनुकरण प्रयोग पुनरावृत्ति, अभ्यास आदि बहुत कुछ शामिल है।


विद्या को ऋषियों ने तपस्या माना है। कुरान को अक्ल और इल्म की रोशनी में समझने का आदेश है लेकिन एक सवाल बचा रहता है। विद्या से किस प्रकार की मुक्ति मिलती है। अमर तो खैर, योग्य व्यक्ति हो ही जाता है। मुक्ति के लिए समाधि आवश्यक है। परमहंस के जीवन में सतत् समाधित होती है।


अरविन्द ने सतत् योग की मीमांसा की है। योग द्वारा समाधि स्थित कुछ समय के लिए प्राप्त की है। कवि कुलगुरु ने रघुवंशियों के लिए 'योगोनान्तः तनुख्यपाम' कहा है और उन्हें मोक्ष पदगामी बताया है। परन्तु विद्या से निर्विकल्प नहीं, सविकल्प समाधि के बाद सांसारिकता में वापसी होती है। 


मैं, तुम, हमारा, तुम्हारा की व्याधि लग जाती है जबकि समाधि में यह व्याधि मिट जाती है मैं और तुम में भेद नहीं रह जाता।विद्या की सिद्धि राक्षसों को भी मिली है। सिद्धि का अपने को स्वामी मानकर स्वामी के लिए उसका उपयोग अथवा परिपीड़न सांसारिकता में होता है और इसी से विद्या व्यसनी राक्षस बन जाते हैं जबकि अपने को सिद्धि का निर्मित मात्र मानने वाले ऋषि हो जाते हैं।


यहीं पर एक वर्जना है। ऊपर पहचान बतायी गयी है। विद्या विनम्रता प्रदान करती है। विद्या अगर अहंकार प्रदान करे तो वह विद्या ही नहीं है। अहंकारी को विद्वान् माना ही नहीं जाना चाहिए। विनम्रता नहीं तो विद्या नहीं वैसे ही जैसे श्रद्धा नहीं तो ज्ञान नहीं। यही पहचान आज लागू कर दी जाये तो कितनी विद्या बचेगी, कितने विद्वान् बचेंगे।


लेकिन जो कुछ बचेगा उसमें स्वार्थ नहीं होगा परमार्थ होगा। इस दृष्टि से आज के विद्वानों पर विचार किया जा सकता है। ज्ञान की मुसरिया हिमालय जैसे दर्प के आगे कुचली जा रही है।हिन्दू और हिन्दुत्व शब्द मूलतः विनम्रता प्रदायक हैं। वे ज्ञान के लिए नंगे पैर लंगोटी लगाकर भिखारी की भाँति न जाने कहाँ-कहाँ की परिक्रमा करते फिरते हैं। 


जिन्होंने जो कछ ज्ञान भीख में कभी पाया है उसके लिए भी पुकार कर कहा है 'इदे नमम्' (यह मेरा नहीं है. यह मेरा नहीं है, उन्होंने यह भी उर्ध्व बाहु होकर कहा है जो हमसे द्वेष करे या हम जिससे द्वेष करें उस पर और हम पर कृपा करके हे परम पिता ज्ञानागार परमात्मा! हमें द्वेषमुक्त करो। द्वेष अल्पज्ञता से उपजता है।


इस देश में कभी भी विद्या का फल सम्पन्नता को नहीं माना गया है। लक्ष्मी और सरस्वती का वैर पुराण प्रसिद्ध है। विद्यानुरागी की फूटी लुटिया पर शंकर का अवठर ज्ञान भी कभी नहीं चला। दिन-रात माँगने पर भी उसके यहाँ संग्रह कभी नहीं हुआ।


संग्रेही व्यक्ति ने ही लोभ, भय, अकाल, मरण और युद्ध जैसे आपकारी तत्वों की सृष्टि की है। संस्कृति अंग्रही होती है। सांस्कृतिक भाव भूमि में विद्या, धन और शक्ति तीनों समाधि से प्राप्त होती हैं और केवल ज्ञानाय, दानाय और रक्षणाय होती हैं।


एक पौराणिक कथा याद आ रही है। घोर कवि काल था। मारकण्डेय चिन्तित हो गये। चिंता यह थी कि कलियुग के बाद तो सतयुग के बीज कहाँ छिपे हैं, वह खोजने निकल पड़े। खोजते-खोजते बेदम हो गए। अन्त में उन्हें एक जगह एक लंगोटीधारी वृद्ध के पास निस्पृह, परिश्रमी, शृद्धावान तीन-चार शिष्य मनोयोग से शिक्षा प्राप्त करते मिले। गुरु की नजर में मिट्टी स्वर्ण से अधिक मूल्यवान थी।


मारकण्डेय की चिंता दूर हो गयी, उन्हें कलियुग में सतयुग के बीज खोजे बिना मिल गए। आज भी मारकण्डेय को वही चिन्ता होगी। चमकदार ऊँचे भवनों में सजेबसे विद्या मन्दिर हैं। लेकिन वहाँ सतयुग के बीज नहीं हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी कभी दावा था कि यह कलियुग से सतयुग के बीज बचाकर रख लेगा।


अब वह भी ऐसी शिक्षा देने जा रहा है जो अहंकार बढ़ाए और जिस शिक्षा के बल पर कुर्सी का स्वार्थ साकार करने लायक समीकरण बने। पता नहीं अब मारकण्डेय की खोज कहाँ पूरी होगी!


संस्कृति की माला जपने वाले आज उसे भयप्रद बनाने जा रहे हैं। वह कान में ऐसे मन्त्र फूंकने जा रहे हैं जिससे विद्या का प्रवाह बँधे, विद्या का अंग भंग हो। वह मन्त्र ऐसा होगा किं उसे पाकर विद्याभ्यासी को विनम्रता नहीं मिलेगी, उग्र अहंकार मिलेगा।


विद्या सीखने से आती है, सीखना ही शिक्षा है लेकिन यह मन्त्र पाकर, शिक्षालयों से विद्या पाकर ऐसा व्यक्ति निकलेगा जो दुनिया में अकेला होगा। वह अपने को सब तरफ से काल्पनिक दुश्मनों द्वारा घिरा मानकर हमेशा सुरक्षा के लिए चिन्तित रहेगा।


'आत्मवत् सर्वभूतेषु' से वह दूर होगा। विद्या पाकर वह बेगाना हो जाएगा। ऐसा आलिम बेगैरत होगा। लेख हरिऔध की वाणी से आरम्भ हुआ था। अगर उन्हीं की तीन सतरें आज की विद्या और शिक्षा के सन्दर्भ में कोई याद कर ले तो मारकण्डेय फिर निश्चित हो जाएंगे


"हम अगर कान कर खड़ा देखें, तो गड़ेगा न आँख में कोई, हम अगर आँख को गड़ा देखें।"मन्त्र को संस्कृति की ही अब मारकण्ड शिक्षा के दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।