युद्ध अभिशाप अथवा वरदान हिंदी निबंध। yudh vardan ya abhishap essay in hindi
नमस्कार दोस्तों आज हम युद्ध अभिशाप अथवा वरदान इस विषय पर निबंध जानेंगे। प्रस्तावना-विश्व के इतिहास को यदि युद्धों का रंगमंच कहा जाये तो यह ठीक नहीं होगा। मनुष्य में भी दो प्रकार की दैवी और आसुरी प्रवृत्तियों का सन्दर्भ बराबर चलता रहता है।
प्रकृति ने मनुष्य को दुःख और सुख दोनों से ही समान बनाया है। ये ही दोनों जीवन के सिक्के की तरह दो पहलू हैं। एक अपने सुख वर्ग का विस्तार करने का प्रयत्न करता है और दूसरा सुख के वर्ग को व्यापक बनाना चाहता है। दोनों ही दुःख के वर्ग की आशंका को बचाने का प्रयत्न करना चाहते हैं।
इस प्रकार के प्रयत्नों में उनके अपने हित टकराने लगते हैं, क्योंकि सुख और स्वार्थ का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इन्हीं स्वार्थों की तकरार की वजह से युद्धों का जन्म हुआ है। युद्ध में दो परस्पर विरोधी व्यक्ति, समाज, समुदाय या देश सम्मिलित होते हैं। दोनों पक्ष ही अपने-अपने सुख पर ध्यान देते हैं।
फिर दोनों ही पक्ष अपना दल आगे बढ़ाते हैं। जिसमें उनकी भावना सम्मिलित होती हैं। दोनों वर्गों के संचालकों का संगठन हो जाता है फिर आपस में बातचीत चलने लगती है और दोनों पक्ष अपने को अच्छा सिद्ध करके दूसरे पक्ष को बुराई देना चाहते हैं। इस प्रकार से बात आगे बढ़ती जाती है।
जब शक्ति से काम नहीं चलता तब सैनिक की शक्ति आजमाई जाने लगती है और युद्ध शुरू हो जाता है। इस युद्ध से अनेक फायदे भी होते हैं और नुकसान भी होते हैं। यह दोनों बातों का प्रभाव जनता की बरबादी पर पड़ता है जो अच्छा नहीं होता है। इसीलिए यह देखना चाहिए कि युद्ध अभिशाप में आता है अथवा वरदान के रूप में आता है।
युद्ध की सामान्य रूपरेखा-युद्ध अपने पुराने रूप में दो राज्यों में हुआ करते थे, और सम्बन्धित राज्य ही उनसे हानियाँ भी उठाते थे। 17वीं और 18वीं शताब्दी या इसके पूर्वकालीन युद्ध इसी प्रकार हुआ करते थे। मतभेद, विभिन्न प्रवृत्तियों का कारण भी होता है।
महाभारत का युद्ध, प्राचीन युद्धों में सबसे विशाल माना जाता है। उसमें कर्ण दुर्योधन के पक्ष में था। वह महान दानी और धर्म का आदर करने वाला तथा ज्ञानी था। कृष्ण ने एक बार कर्ण से पूछा कि 'तुम वीर' दानी हो और तुम जानते हो कि दुर्योधन अन्याय कर रहा है। फिर क्यों तुम उसका साथ दे रहे हो?
कर्ण ने फिर उत्तर दिया कि 'मैं धर्म भी जानता हूँ पर उसमें मेरी वृत्ति नहीं है और अधर्म को भी जानता हूँ पर उससे छुटकारा नहीं है। कोई देव मेरे हदय में बैठकर जिधर नियुक्ति करता है, वही करता हूँ, इसका एक भाव यही है कि मनुष्य के कर्म प्रेरणा से होते हैं मनुष्य उसमें केवल कम मात्रा में होता है, उसका विधायक तो प्रेरणा ही होता है।
आज भौतिक युग में मनुष्य कर्ता और विधायक दोनों का श्रेय खुद ले रहा है। अतः इन सभी कार्यों के पूर्ण उत्तरदायी युद्ध में मिले हुए देश के नेता ही होते हैं। नेता लोग अपने पक्ष की जनता तथा कार्यकर्ताओं को अपने अनुकूल बना लेते हैं। दोनों पक्षों की सेनाएँ अस्त्र-शस्त्र से सज्जित होकर मैदान की ओर अग्रसर होती हैं।
युद्ध-घोषणा होते ही वे धावा बोलना शुरू कर देती हैं। इसके बाद युद्ध का रूप साधनों के अनुसार सीमित होता है। वर्तमान समय में युद्ध का रूप अधिक हो गया है। ध्वनि से दुगुनी गति से चलने वाले युद्ध के विमान मीलों भूमि को छिन्न-भिन्न करने वाले भयंकर बमों की वर्षा करेंगे, एक-एक बम सैंकड़ों सहस्त्रों वर्गमील भूमि के धन-जन का विनाश करेंगे।
ऐसे शस्त्र सभी शक्तिशाली राष्ट्रों के पास हैं। विश्व का अधिकांश भाग नष्ट हो जायेगा। इस युद्ध का लघु प्रभाव जापान के नागासाकी और हिरोशिमा भागों में देखा जा सकता है। भावी युद्ध के इतिहास की रूपरेखा का अनुमान लगाया जा सकता है। युद्ध अभिशाप के रूप में-जब युद्ध होते हैं तो जवानों को सेना में भर्ती कर लिया जाता है।
नगरों तथा ग्रामीण क्षेत्रों के शक्तिशाली युवकों के सेना में चले जाने से व्यवसाय और खेती कार्य करने वाले निर्बल पड़ जाते हैं। खेती और व्यवसाय दोनों का हास होने लगता है, उत्पादन और उपज का अधिकांश भाग सैनिक प्रयोग के लिए सरकार ले लिया करती जिससे जन-साधारण को घोर कष्ट होने लगता है।
देश में धन-जन की क्षति होती है। युद्ध में सम्मिलित होने वाले राज्यों में भयंकर स्थिति उत्पन्न हो जाती है। आतंक चारों ओर फैला रहता है। धन-जन की सुरक्षा अच्छी नहीं होती। सामान्य उपभोग की वस्तुओं का अभाव होता जाता है जिससे महँगाई बढ़ रही है।
इनका सामना करने के लिये सरकार सिक्कों का प्रयत्न कर रही है। सरकारी क्षेत्रों में धन की कमी होने लगी है। जनता से अधिक कर वसूल किया जा रहा है। देश और समाज के हर क्षेत्र में कठिनाई मुँह खोले खड़ी रहती है।
युद्ध में लाखों व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है। उनका परिवार बरबाद हो जाता है। उनके पालन-पोषण के सभी साधन नष्ट हो जाते हैं। मरे हुए सैनिकों को सहारा देने वाला कोई नहीं था। जितने व्यक्ति विकलांग हो जाते हैं उनकी स्थिति और भी खराब हो जाती है। वे समाज में बोझ बनकर रह जाते हैं।
इससे वायुमण्डल दूषित हो जाता है और कई प्रकार की नई-पुरानी बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। जिनसे करोड़ों मनुष्यों की अकाल मृत्यु हो जाती है। जनता का स्वास्थ्य खराब हो जाता है तथा इसमें लोगों की नैतिकता का हाथ होता है। सारी शक्ति युद्धकाल में लगी रहती है, युद्धोत्तर युग में भयंकर अकाल तथा दैवी प्रकोप हुआ करते हैं।
वर्तमान काल में युद्ध सामाग्रियों से वायुमण्डल को प्रदूषित करने की ओर भी अपूर्व शक्ति आ गयी है। इस प्रकार से युद्ध अभिशाप ही नहीं बल्कि भयंकर अभिशाप के रूप में है। युद्ध कितना बड़ा अभिशाप है यह जापान के हिरोशिमा और नागासाकी के वृक्षों से पूछा जाये जिन्होंने मानवता को स्वयं अपनी आँखों से कराहते हुए देखा है।
द्वितीय महायुद्ध के भयंकर परिणामों को स्वयं अपनी आँखों से देखने वाले व्यक्ति आज युद्ध के नाम पर कांप जाते हैं।,युद्ध वरदान के रूप में-युद्धों से कुछ लाभ भी होते हैं। जब विश्व की जनसंख्या में वृद्धि अधिक हो जाती है तब युद्ध उस जनसंख्या को सन्तुलित करता है।
यदि संसार में युद्ध न हो तो हम और आप भूखे मर जायें। संघर्ष करने से ही शक्ति उत्पन्न होती है और युद्ध संघर्षों का जनक है, इन्हीं संघर्षों से शक्ति अर्जित करने की प्रेरणा मिलती है। युद्ध कार्यशीलता से कार्यकुशलता उत्पन्न करने की शक्ति मिलती है।
युद्ध के भय से ही विभिन्न देशों में सहयोग और सहानुभूति की भावना जाग्रत होती है। युद्ध विजय के लिए राष्ट्र को शक्तिशाली बनाया जाता है। इस प्रकार कई दृष्टियों से युद्ध वरदान भी है।
उपसंहार-युद्ध में पराजित देश को ही युद्ध का उत्तरदायी मानकर विजयी देश उस पर अधिकार कर लेता है तथा उससे हानि को पूरा करवाता है। फिर भी अवसर पाकर वे देश उन्नति कर जाते हैं। शक्तिकाल में जो शक्ति नष्ट होती जाती है, वही युद्धकाल में तीव्र हो जाती है। अतः युद्ध अपने संदर्भ में वरदान भी है यद्यपि भौतिक रूप में अभिशाप भी होती है। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।